लेफ्ट का न हथौड़ा चला न बसपा का हाथी
बिहार में न वाम मोर्चा का हथौड़ा चला और न ही बसपा का हाथी दौड़ा। वाम मोर्चा की एका पर एक बार फिर माकपा, भाकपा और माले के नेता गंभीरता से पुनर्विचार करने और संगठन फैलाने की नीति पर चलने को बाध्य...
बिहार में न वाम मोर्चा का हथौड़ा चला और न ही बसपा का हाथी दौड़ा। वाम मोर्चा की एका पर एक बार फिर माकपा, भाकपा और माले के नेता गंभीरता से पुनर्विचार करने और संगठन फैलाने की नीति पर चलने को बाध्य होंगे। उत्तर प्रदेश की तरह ब्राह्मण-दलित समीकरण के बूते बिहार में भी शक्ित बढ़ाने की संभावना पाले बसपा को भारी झटका लगा है। यहां तक कि बहन मायावती के करीब माने जाने और बिहार प्रभारी गांधी आजाद की भी सासाराम से हार हुई जिससे यह साबित हो गया कि बिहार में बसपा को अभी और पसीना बहाना होगा। वाल्मीकिनगर, गोपालगंज और बक्सर में पार्टी को उम्मीद थी कि वह ब्राह्मण-दलित समीकरण के बूते यहां की लड़ाई में शामिल होगी। इसे जनता ने नकार कर पार्टी को अपनी रणनीति बदलने पर मजबूर कर दिया है। बसपा के प्रदेश नेताओं का मानना है कि उत्तर प्रदेश के समीकरण के फेल होने के पीछे एक कारण विकास का मुद्दा भी है। वहीं वाम मोर्चा का खाता नहीं खुलने से सृूबे के तीनों वाम दलों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि उसे जमीनी पकड़ फिर से मजबूत करनी होगी। पहले की तरह पंचायत और प्रखंड स्तर पर स्थानीय मुद्दों पर आंदोलन की जमीन तैयार कर कैडर आधारित संगठन को जीवित करना होगा।ड्ढr ड्ढr मधुबनी, बेगूसराय, चम्पारण आदि सीपीआई के गढ़ माने वाले क्षेत्र में सिर्फ बयान से नहीं बल्कि काम करके पार्टी को स्थापित करना होगा। माले को भी इस पर विचार करना होगा कि उसके आधार मत बढ़ क्यों नहीं रहे। यह ठीक है उसके मतों में ज्यादा कमी नहीं आ रही पर जीत लायक मतों की जुगाड़ कर पाने में पार्टी सफल क्यों नहीं हो रही। मध्य बिहार से बाहर भी पार्टी को बढ़ाने की योजना बनानी होगी और आधार मत कैसे बढ़े इस पर गंभीरता से मंथन करना होगा। माकपा को भी सीपीआई की तरह निचले स्तर पर काम करने के साथ संगठन के विस्तार पर मेहनत करनी होगी।