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साहिर की परछाइयां

साहिर लुधियानवी को गुजरे 35 बरस हो गए, लेकिन वे काव्य प्रेमियों की याद में अब भी जिंदा हैं। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व हर वक्त चर्चा में रहा है। प्रस्तुत हैं अमृता प्रीतम और निदा फाज़ली के संस्मरण, जो...

साहिर की परछाइयां
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 14 Mar 2015 10:43 PM
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साहिर लुधियानवी को गुजरे 35 बरस हो गए, लेकिन वे काव्य प्रेमियों की याद में अब भी जिंदा हैं। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व हर वक्त चर्चा में रहा है। प्रस्तुत हैं अमृता प्रीतम और निदा फाज़ली के संस्मरण, जो दो बिल्कुल अलग नजरियों से साहिर को देखते हैं।

अखबारों और किताबों में अनेक ऐसी घटनाएं पढ़ी हुई थीं- कि होने वाली मां के कमरे में जिस तरह की तस्वीरें हों या जैसे रूप की वह मन में कल्पना करती हो, बच्चे की सूरत वैसी ही हो जाती है...और मेरी कल्पना ने जैसे दुनिया से छिपकर धीरे से मेरे कान में कहा- ‘अगर मैं साहिर के चेहरे का हर समय ध्यान करूं तो मेरे बच्चे की सूरत उससे मिल जाएगी...’
जो जिन्दगी में नहीं पाया था, जानती हूं, यह उसे पा लेने का एक चमत्कार जैसा यत्न था...
ईश्वर की तरह सृष्टि रचने का यत्न...
शरीर का एक स्वतंत्र कर्म...
केवल संस्कारों से स्वतंत्र नहीं, लहू मांस की वास्तविकता से भी स्वतंत्र...
दीवानगी के इस आलम में जब 3 जुलाई 1947 को बच्चे का जन्म हुआ, पहली बार उसका मुंह देखा, अपने ईश्वर होने का यकीन हो गया, और बच्चे के पनपते हुए मुंह के साथ यह कल्पना भी पनपती रही कि उसकी सूरत सचमुच साहिर से मिलती है...
खैर, दीवानेपन के अंतिम शिखर पर पैर रखकर सदा नहीं खड़े रहा जा सकता, पैरों को बैठने के लिए धरती का टुकड़ा चाहिए, इसलिए आने वाले वर्षों में मैं इसका जिक्र एक परी-कथा की तरह करने लगी...
एक बार यह बात मैंने साहिर को भी सुनाई, अपने आप पर हंसते हुए। उसकी और किसी प्रतिक्रिया का पता नहीं, केवल इतना पता है कि वह सुनकर हंसने लगा और उसने सिर्फ इतना कहा- ‘वैरी पूअर टेस्ट!’
साहिर को जिन्दगी का एक सबसे बड़ा कॉम्प्लैक्स है कि वह सुन्दर नहीं है, इसी कारण उसने मेरे पूअर टेस्ट की बात कही।

इससे पहले भी एक बात हुई थी। एक दिन उसने मेरी लड़की को गोदी में बैठाकर कहा था- ‘तुम्हें एक कहानी सुनाऊं?’ और जब मेरी लड़की कहानी सुनने के लिए तैयार हुई तो वह कहने लगा- ‘एक लकड़हारा था। वह दिन-रात जंगलों में लकड़ियां काटता था। फिर एक दिन उसने जंगल में एक राजकुमारी को देखा, बड़ी सुन्दर। लकड़हारे का जी किया कि वह राजकुमारी को लेकर भाग जाए...’
‘फिर?’ मेरी लड़की कहानियों के हुंकारे भरने की उम्र की थी, इसलिए बड़े ध्यान से कहानी सुन रही थी।
मैं केवल हंस रही थी, कहानी में दखल नहीं दे रही थी। वह कह रहा था- ‘पर वह था तो लकड़हारा न, वह राजकुमारी को सिर्फ देखता रहा, दूर से खड़े-खड़े, और फिर उदास होकर लकड़ियां काटने लगा। सच्ची कहानी है न?’
‘हां, मैंने भी देखा था।’ न जाने बच्ची ने यह क्यों कहा।
साहिर हंसते हुए मेरी ओर देखने लगा- ‘देख लो, यह भी जानती है’ और बच्ची से उसने पूछा, ‘तुम वही थी न जंगलों में?’
बच्ची ने हां में सिर हिला दिया।
साहिर ने फिर उस गोद में बैठी हुई बच्ची से पूछा- ‘तुमने उस लकड़हारे को भी देखा था न? वह कौन था?’
बच्ची के ऊपर उस घड़ी कोई देव-वाणी उतरी हुई थी शायद, बोली- ‘आप...’
साहिर ने फिर पूछा- ‘और वह राजकुमारी कौन थी?’
‘मामा।’ बच्ची हंसने लगी।
साहिर मुझसे कहने लगा- ‘देखा, बच्चे सब-कुछ जानते हैं।’
फिर कई वर्ष बीत गए। 1960 में जब मैं बम्बई गई तो उन दिनों राजेन्द्र सिंह बेदी बड़े मेहरबान दोस्त थे। अकसर मिलते थे। एक शाम बैठे बातें कर रहे थे कि अचानक उन्होंने पूछा, ‘प्रकाश पंडित के मुंह से एक बात सुनी थी कि नवराज साहिर का बेटा है...’
उस शाम मैंने बेदी साहब को अपनी दीवानगी का वह आलम सुनाया। कहा- ‘यह कल्पना का सच है, हकीकत का सच नहीं।’
उन्हीं दिनों एक दिन नवराज ने भी पूछा- उसकी उम्र अब कोई तेरह बरस की थी, ‘मामा! एक बात पूछूं, सच-सच बताओगी?’
‘हां।’
‘क्या मैं साहिर अंकल का बेटा हूं?’
‘नहीं।’
‘पर अगर हूं तो बता दो! मुझे साहिर अंकल अच्छे लगते हैं।’
‘हां, बेटे! मुझे भी अच्छे लगते हैं, पर गर यह सच होता मैंने तुम्हें जरूर बता दिया होता।’
सच का अपना एक बल होता है, सो मेरे बच्चे को यकीन आ गया।
सोचती हूं- कल्पना का सच छोटा नहीं था, पर वह केवल मेरे लिए था- इतना कि वह सच साहिर के लिए भी नहीं।
लाहौर में जब कभी साहिर मिलने के लिए आता था तो जैसे मेरी ही खामोशी में से निकला हुआ खामोशी का एक टुकड़ा कुर्सी पर बैठता था और चला जाता था...
वह चुपचाप सिर्फ सिगरेट पीता रहता था, कोई आधा सिगरेट पीकर राखदानी में बुझा देता था, फिर नया सिगरेट सुलगा लेता था। और उसके जाने के बाद केवल सिगरेटों के बड़े-बड़े टुकड़े कमरे में रह जाते थे।
(रसीदी टिकट, अमृता प्रीतम, पराग प्रकाशन से साभार)

...
लेकिन साहिर लुधियानवी यूपी वालों की तरह अन्दर कुछ बाहर कुछ की दोरुखी से दूर हैं। उनका गुस्सा और खुशी कभी अपनी पंजाबियत नहीं छोड़ते। खुश होते हैं तो खुलकर कहकहा लगाते हैं। नाराज होते हैं तो सात नस्लों तक दुश्मनी का पीछा करते हैं। उन पर मजमून प्रकाशित होने के बाद उनसे पहली मुलाकात फिल्म रायटर के मुशायरे में होती है। इसके संयोजक महेन्द्रनाथ हैं। उनके आमंत्रित शायरों की सूची में निदा का नाम भी है। निदा साहिर से कई बार मिल चुका है। जब वह बम्बई में नया-नया था तो वह भी फिल्मी दुनिया में उनके नाम से फायदे के लालच में कई बार उनके घर गया था। उनके साथ शराब पी थी, उनके साथ खाना खाया था। लेकिन यह फायदा शाम की शराब और खाने की सीमाओं से कभी आगे नहीं बढ़ा। उन दिनों जांनिसार अख्तर उनकी महफिलों में रोज में बैठनेवालों में थे। वह अपने-आपको घर में रखकर आते थे। यहां उनका प्रतिनिधित्व बहुत सारे बेतरतीब बाल, कई रातों की जागी हुई आंखें और एक महीन आवाज ही करती थी! शाम की इन महफिलों में घर साहिर का, शराब साहिर की, शराब के बाद खाना साहिर का और इनके साथ बोलने का हक भी साहिर का ही होता था। फिल्मों में जांनिसार की नाकामी और साहिर की कामयाबी के अन्तर ने उन्हें इन शर्तों का एहतराम सिखाया है।

जो इन शर्तों को जाने बिना साहिर की रातों में शरीक होते हैं, अपनी इज्जत-आबरू को दांव पर लगाते हैं। इन महफिलों में अपनी इज्जत-आबरू खोने वालों में कृष्णचन्दर, सज्जाद जहीर से लेकर सरदार जाफरी तक कई जाने-पहचाने नाम शामिल हैं। दूसरों को बुरा-भला कहकर ही साहिर अपनी नजर में बड़ा बनने का साहस पैदा करते थे। साहिर को जांनिसार और उन जैसे ही दूसरे जरूरतमंदों ने मुसलसल बोलते रहने का मरीज बना दिया है। हर शाम वही आलम। बार-बार वही बातें। ‘तलखियां’ के छब्बीस एडीशन, गीत निगारी में उनका मुकाम, संगीत निर्देशकों से ज्यादा पारिश्रमिक लेने की परम्परा, दूसरी भाषाओं में उनकी पुस्तक का प्रकाशन, लुधियाना में उनके नाम की सड़क, मुशायरों में उनकी लोकप्रियता आदि।

वह शराब के नशे में निदा को इस मुशायरे में देखकर बुरी तरह बिफर जाते हैं। प्रतिक्रियावादी, अमेरिका का जासूस, तरक्की पसन्दों को मुखालिस...निदा के साथ उस रात उनकी गालियों के शिकार महेन्द्रनाथ और कृष्णचन्दर भी होते हैं। कृष्णचन्दर दिल के मरीज हैं! प्रगतिशील आलोचकों द्वारा एशिया के अजीम अफसाना निगार बनने के बाद बीच मजमे में इस बेइज्जती ने उनका ब्लडप्रेशर तेज कर दिया। साहिर को इस तरह बिगड़ता देखकर महेन्द्रनाथ ठेठ पंजाबी में उन्हें मनाना शुरू कर देते हैं।
(दीवारों के बीच, निदा फाजली, वाणी प्रकाशन से साभार)

 

 

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