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हकीकत से रू-ब-रू

कवि, लेखक और राजनीतिक विश्लेषक अजय सिंह का यह पहला कविता संग्रह है, गोकि उनकी कविताएं अर्से से प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही हैं। वह उन चुनिंदा रचनाकारों में से हैं, जिनके लिए लेखन जन-सरोकार...

हकीकत से रू-ब-रू
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 20 Jun 2015 08:19 PM
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कवि, लेखक और राजनीतिक विश्लेषक अजय सिंह का यह पहला कविता संग्रह है, गोकि उनकी कविताएं अर्से से प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही हैं। वह उन चुनिंदा रचनाकारों में से हैं, जिनके लिए लेखन जन-सरोकार का मसला है, न कि स्वांत सुखाय मात्र का। यही वजह है कि इस संग्रह की कविताओं में समसामयिक सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं-परिघटनाओं की अनुगूंज बहुत साफ-साफ सुनाई पड़ती है। संगह की पहली कविता है- 'देश प्रेम की कविता उर्फ सारे जहां से अच्छा...'। जज्बे से भरी यह कविता अपने समय की हकीकत का बयान करती है और साझा हिन्दुस्तान, बराबरी वाले और इनसाफ वाले हिन्दुस्तान की बात करती है। जाहिर है, यह कई असुविधाजनक सवालों को सामने रखती है। वास्तव में इस संग्रह की सारी कविताएं ही ऐसे सवाल उठाती हैं। गहन राजनीतिक चेतना से लैस इन कविताओं का अंतर मानवीय प्रेम के जल से सिक्त है।
राष्ट्रपति भवन में सूअर, अजय सिंह, गुलमोहर किताब, दिल्ली, मू. 70 रु.


शेरशाह की गाथा

मध्यकालीन भारतीय इतिहास में शेरशाह सूरी का नाम किसी धूमकेतु की तरह आकर चला जाता है। इस अफगान शासक का उदय एक ऐसे समय में हुआ, जब भारत में मुगल वंश सत्तासीन हो चुका था। लेकिन इसी बीच शेरशाह ने अपना सिक्का जमाया। एक कुशल सेनानायक के रूप में उसकी ख्याति है। मगर इससे भी अधिक उसको एक नेकदिल और प्रजा का ख्याल रखने वाले शासक के रूप में याद किया जाता है। उसे दिल्ली के सिंहासन पर सिर्फ पांच साल बैठने का वक्त मिला, लेकिन इसी अल्पकाल में उसने प्रशासनिक और लोकहित के इतने काम किए कि इतिहास में उसका नाम अत्यंत आदर के साथ लिया जाता है। ग्रैंड ट्रक रोड उसकी बेमिसाल यादगार है। अगर बारूद फटने के एक हादसे में शेरशाह की असमय मौत न हुई होती तो उसके खाते में और कामयाबियां दर्ज होतीं। वरिष्ठ लेखिका ने प्रस्तुत पुस्तक में इसी शेरशाह की दास्तान बयान की है, जो सूर-साम्राज्य के इस सितारे की जीवनी भी है और एक दिलचस्प उपन्यास भी।  
अगनहिंडोला, उषाकिरण खान, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, मू. 395 रु.

राष्ट्र का मतलब

'छवि और छाप' राष्ट्रीयता के आलोक में भोजपुरी कविताओं का आलोचनात्मक पाठ है। भारत में राष्ट्रीयता के विकास में औपनिवेशिक शासन के खिलाफ उत्पन्न प्रतिक्रिया की अहम भूमिका रही है। पर राष्ट्रवाद का एक खतरा यह है कि कई बार यह अंधराष्ट्रवाद में बदल जाता है तो कई मौकों पर अंतर्राष्ट्रीयता का विरोधी बन जाता है। यह सुखद है कि इस पुस्तक के लेखक ने राष्ट्रीयता को संकुचित दायरों में देखने की बजाय व्यापकता में देखा है। इसलिए इसमें भोजपुरी कविता में अभिव्यक्त राष्ट्रीय चेतना के उदार और समावेशी स्वरूप का परिचय मिलता है। लेखक ने प्रसंगवश हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं की कविताओं में अभिव्यक्त राष्ट्रीयता की विवेचना भी की है, जिससे यह पुस्तक और अहम हो उठी है। भोजपुरी लोकभाषा है, अत: स्वाभाविक ही उसके लोकगीतों को भी इस अध्ययन में शामिल किया गया है।
छवि और छाप, डॉ. सुनील कुमार पाठक, ग्रंथ अकादमी, नई दिल्ली, मू. 350 रु.

पराजित का पक्ष

भारतीय जनमानस में दुर्योधन की छवि एक खलनायक की है, लेकिन यह भी एक तथ्य है कि वह भी इसी देश के एक मंदिर का इष्टदेव है। और यही तथ्य प्रस्तुत उपन्यास की रचना की पृष्ठभूमि बना। लेखक ने इस उपन्यास में नए नजरिये से कौरवों की गाथा पेश की है, जिनका महाभारत के युद्ध में समूल विनाश हो गया था। इसमें उन्होंने सुयोधन यानी दुर्योधन को नायक के रूप में चित्रित किया है। इससे सहमत या असहमत होना अपनी दृष्टि पर निर्भर करता है, लेकिन इस उपन्यास के दिलचस्प होने में कोई संदेह नहीं है।
अजेय दुर्योधन की महाभारत, आनंद नीलकंठन, अनुवाद: रचना भोला 'यामिनी', मंजुल पब्लिशिंग हाउस प्रा. लि., भोपाल, मू. 295 रु.

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