व्यापक सजग बोध
किसी जिज्ञासु पाठक के लिए एक सहज कौतुहल हो सकता है कि उसके प्रिय लेखक या यूं कहें कि कोई नामी-गिरामी लेखक खुद क्या पढ़ते-लिखते हैं और उसके प्रति क्या राय रखते हैं। इससे न सिर्फ उस लेखक की निजी रुचि...
किसी जिज्ञासु पाठक के लिए एक सहज कौतुहल हो सकता है कि उसके प्रिय लेखक या यूं कहें कि कोई नामी-गिरामी लेखक खुद क्या पढ़ते-लिखते हैं और उसके प्रति क्या राय रखते हैं। इससे न सिर्फ उस लेखक की निजी रुचि जाहिर होती है, बल्कि उसका दृष्टिकोण भी प्रत्यक्ष होता है। पुस्तक में कुंवर नारायण के समीक्षात्मक-संस्मरणात्मक लेखन की बानगी है। कुछ टिप्पणियां भी हैं। समीक्षा खंड में शमशेर, केदारनाथ सिंह से लेकर मनोहरश्याम जोशी, विनोद कुमार शुक्ल तक कुल दर्जनभर साहित्यकारों पर लिखा है। संस्मरण खंड में अज्ञेय, निर्मल वर्मा, नेमिचंद जैन, नामवर सिंह, श्रीलाल शुक्ल, ब.व. कारंत और अशोक वाजपेयी पर सामग्री है और टिप्पणी खंड में रघुवीर सहाय और कृष्णा सोबती से लेकर गोरख पांडेय और ओम थानवी पर टिप्पणियां हैं। अपने वरिष्ठ लेखक के सुचिंतित और आत्मीयता से परिपूर्ण गद्य को पढ़ना निश्चय ही प्रीतिकर है। रुख, कुंवर नारायण, संपादन : अनुराग वत्स, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, मू. 300 रु.
सच सपने से आगे का
हेमंत कुकरेती हिन्दी कवियों की उस जमात के सुपरिचित सदस्य हैं, जिन्होंने 1990 के दशक में अपनी खास पहचान बनाई थी। यह उनका पांचवां कविता संग्रह है। इसमें संकलित कविताएं समसामयिक विषमताओं के प्रति तीखी प्रतिक्रिया के अंदाज में व्यक्त हुई हैं। ‘यह उस दौर के बारे में है, जब लोग जो कर सकते थे, करते नहीं थे/ बस बोलते थे।’ इसमें उस सफलता की शिनाख्त है, जिसमें संपन्न आदमी के दिमाग की जगह हवा है और जिसका दिल पत्थर हो चुका है व उसकी आकांक्षा दुनिया को चाट जाने और आकाश को पी जाने की है। हेमंत उस संशय को रेखांकित करते हैं, जो व्यक्ति को निपट अकेला बना रहा है, क्योंकि आज किसी पर विश्वास करने की गुंजाइश लगातार घटती जा रही है। कविताओं में हर उस व्यक्ति की व्यथा है, जो अपनी शर्म और गरीबी को ढके हुए लौट रहा है। कविताएं उस चौतरफा पतन और विघटन के प्रतिवाद स्वरूप हैं, जो मानवीय जीवन की सहज स्वाभाविक गरिमा को निरंतर क्षत-विक्षत कर रही हैं। धूप के बीज, हेमंत कुकरेती, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, मू. 225 रु.
अपने अपने सच
कहानियां समसामयिक जीवन से वैसे किरदारों को लाकर खड़ा करती हैं, जो जिंदगी की आपाधापी में लगातार टूट रहे हैं, लेकिन प्रत्यक्ष तौर पर नजर आने वाली उनकी हताशा के भीतर कहीं गहरे में उनके सपनों का जल अब भी तरंगित होता रहता है। जाहिर है लेखक उसी जीवन जल का साक्षात पाठकों को कराना चाहते हैं। इनकी कहानियां किसी कल्पना लोक की कारीगरी की देन नहीं हैं। अकसर वे अपने आसपास के जीते-जागते लोगों से ही प्रेरित हैं। वह इन लोगों के साथ घट रही घटनाएं और उनकी परिस्थितियों के बहाने उन सवालों को पाठकों के सामने खड़ा करते हैं, जिनमें यह बेकली है कि आखिर हम जिंदगी से चाहते क्या हैं? और इसकी शर्ते क्या हैं? ये कहानियां ये सवाल भी पेश करती हैं कि क्या अपनी पराजय के लिए कोई केवल खुद ही जिम्मेदार होता है या वह किसी का शिकार होता है। कैसा आदमी हूं मैं, अरुण अस्थाना, पेंगुइन बुक्स, गुड़गांव हरियाणा, मू.150 रु.
बाल कविताएं
यह किताब बच्चों को ध्यान में रखकर लिखी गई है। इसमें सहज, सरल भाषा में विभिन्न विषयों पर आधारित तुकबंदियां हैं, जिनमें प्राय: कोई न कोई सीख या संदेश है। हालांकि अनेक कविताएं विशुद्ध मनोरंजन और सस्वर पाठ का आनंद लेने के लिए भी हैं। हिन्दी में बच्चों के लिए साहित्य की कमी अब तक बनी हुई है। ऐसे में यह प्रयास सराहनीय है। कविताओं का अंदाज पारंपरिक है। स्वाभाविक ही इसमें चिड़िया, फल, बादल, दादाजी, भैया, छुटकी जैसे विषय हैं। साथ ही इसमें कंप्यूटर सरीखे आजकल के जमाने की चीजों पर भी कविताएं दी गई हैं। बचपन की पचपन कविताएं, अभिरंजन कुमार, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, मू.150 रु.
धर्मेंद्र सुशांत