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प्रदूषण के विसर्जन की ओर

नदियों की स्वच्छता के साथ-साथ आस्था की गरिमा भी बची रहनी चाहिए। लाखों की संख्या में खतरनाक पेंट वाली मूर्तियों और सामग्रियों को नदी और तालाबों में प्रवाहित किए जाने से पर्यावरण को गंभीर खतरा पैदा हो...

प्रदूषण के विसर्जन की ओर
लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 21 Oct 2015 10:35 PM
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नदियों की स्वच्छता के साथ-साथ आस्था की गरिमा भी बची रहनी चाहिए। लाखों की संख्या में खतरनाक पेंट वाली मूर्तियों और सामग्रियों को नदी और तालाबों में प्रवाहित किए जाने से पर्यावरण को गंभीर खतरा पैदा हो गया है। इसलिए अब हमें ऐसे तरीके तलाशने ही होंगे, जिनसे हमारी परंपरा भी बची रहे और प्रकृति भी। परंपराएं हमेशा देशकाल के अनुरूप अपना परिष्कार मांगती हैं। वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र धोड़पकर की टिप्पणी

कुछ वर्षों पहले तक यह माना जाता था कि सार्वजनिक गणेशोत्सव महाराष्ट्र का त्योहार है, पर आज स्थिति यह है कि गणेश विसर्जन के वक्त पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दिल्ली-मेरठ राजमार्ग पर मीलों लंबा जाम लग जाता है। यही स्थिति दुर्गोत्सव की है। 20वीं शताब्दी की शुरुआत में कोलकाता में सार्वजनिक दुर्गोत्सव की शुरुआत हुई। और आज पूर्वी भारत को छोड़ दें तो उत्तर और पश्चिम भारत के ही तमाम बड़े शहरों में दुर्गोत्सव के सैकड़ों पंडाल होते हैं।

इलाहाबाद में प्रशासन ने पर्यावरण के नजरिए से दुर्गा प्रतिमाएं विसर्जित करने के लिए कुछ तालाबों को चुना है, इसलिए इलाहाबाद में सार्वजनिक दुर्गा प्रतिमाओं की ठीक-ठीक संख्या पता है। इलाहाबाद शहरी और ग्रामीण इलाके में इस साल 1,870 दुर्गा प्रतिमाओं के विसर्जन का इंतजाम है। सिर्फ दिल्ली में 800 से ज्यादा प्रतिमाएं स्थापित होती हैं। इसके अलावा नोएडा, गुड़गांव आदि उपनगरों में सैकड़ों प्रतिमाएं स्थापित होती हैं। ऐसे में प्रतिमा विसर्जन संवेदनशील मामला बन जाए और एकाध बार हिंसा भी हो जाए तो आश्चर्य क्या है?

वाराणसी में गणपति विसर्जन के मौके पर हुए बवाल को इसी परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। इस हिंसा का तात्कालिक संदर्भ इलाहाबाद हाईकोर्ट का वह आदेश है, जिसमें अदालत ने गंगा में प्रदूषण के चलते प्रतिमा विसर्जन पर रोक लगा दी है। कुछ धार्मिक नेताओं का कहना है कि शास्त्रानुसार वे गंगा में ही प्रतिमा विसर्जित करेंगे। प्रशासन ने उन्हें रोका तो बवाल हो गया, हालांकि इसमें राजनीति भी काम कर रही थी। हम अंदाजा लगा सकते हैं कि देश भर में सार्वजनिक दुर्गा प्रतिमाओं की संख्या लाखों में होगी।

गणेश मूर्तियां शायद दुर्गा प्रतिमाओं से कई गुना ज्यादा होंगी। अगर इतनी प्रतिमाएं विसर्जित की जाएं तो हम सोच सकते हैं कि प्रदूषण किस हद तक होगा। शास्त्रों में विधान तो पार्थिव प्रतिमा की स्थापना का है, लेकिन कम से कम गणेश प्रतिमाएं तो अब ज्यादातर प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनती हैं। मिट्टी की प्रतिमाएं पानी में घुल जाती थीं, प्लास्टर नहीं घुलता। इन प्रतिमाओं पर इनैमल पेंट भी किया जाता है, जिसमें कई खतरनाक रसायन, भारी धातु सीसे के यौगिक होते हैं।

कथित रूप से सीसे के अंश पाए जाने के आरोप में मैगी कितने विवादों में फंस गई थी। हमें अपने खाने में सीसे का अंश नहीं चाहिए, लेकिन हम खुद ढेर सारा सीसा पानी में डालने से नहीं हिचकते, जो हमारे नलों से आने वाले पानी में आ सकता है, उस पानी से सिंचाई की गई फसल में वह सीसा मौजूद हो सकता है, अनाज, फल-सब्जियों में जा सकता है। ऐसे में नदियों में प्रतिमा विसर्जन पर रोक लगाना ठीक लगता है।

एक और मुद्दे पर यहां विचार करना जरूरी है। नदियों, तालाबों, भू-जल के प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण औद्योगिक प्रदूषण, शहरों का सीवेज और खेती के रासायनिक कीटनाशक और खाद हैं। दिल्ली में यमुना के पुलों पर बड़ी-बड़ी जालियां लगा दी गई हैं, ताकि लोग पूजा की सामग्री या मूर्तियां यमुना में विसर्जित न करें। पर हकीकत यह है कि यमुना गंदा नाला बन चुकी है। वजीरपुर बैराज पर यमुना का सारा पानी रोक लिया जाता है, उसके तुरंत बाद नजफगढ़ का नाला एक चौथाई शहर की गंदगी लेकर यमुना में मिलता है। दिल्ली में हम जिसे यमुना का पानी कहते हैं, वह नजफगढ़ के नाले का और उसके बाद मिलने वाले नालों का पानी है। इस पानी को प्रतिमाएं कैसे प्रदूषित कर सकती हैं? अगर सीवर और औद्योगिक प्रदूषण को पानी में मिलने से नहीं रोका गया तो इस रोक का क्या हासिल है?

इसका अर्थ यह नहीं कि प्रतिमा विसर्जन पर रोक नहीं लगनी चाहिए। गणेश और दुर्गा की प्रतिमाओं की तरह यमुना और गंगा भी हमारे लिए पूज्य हैं। ऐसे में हम ऐसा काम क्यों करें, जिनसे इन नदियों में जहर घुले? पुराने वक्त में नदी-तालाब इतने प्रदूषित नहीं थे, प्रतिमाएं भी मिट्टी की होती थीं। थोड़ा-बहुत प्रदूषण होता भी था तो प्रकृति उससे निबट सकती थी। मिट्टी की चंद प्रतिमाओं के दौर में जो नियम काम करते थे, वे प्लास्टर ऑफ पेरिस की रासायनिक रंग लेपित विशालकाय हजारों-लाखों प्रतिमाओं के दौर में काम नहीं करेंगे।

एक अच्छी शुरुआत यह है ‘इको फ्रेंडली’ प्रतिमाएं बनने लगी हैं। ये मिट्टी या पेपर मैशे की होती हैं और इन पर सुरक्षित रंग होते हैं, जो प्रकृति को नुकसान नहीं पहुंचाते। इनके विसर्जन के लिए कृत्रिम तालाब या कुंड बनाए जाते हैं, जिनका पानी सिंचाई या ऐसे ही कामों में इस्तेमाल हो जाता है। एक और तरीका है मिट्टी की प्रतिमाओं को भू-कुंड में विसर्जित करने का यानी मिट्टी को फिर मिट्टी में ही विलीन करने का। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने तो प्लास्टर और रासायनिक रंगों के प्रतिमा निर्माण पर ही पाबंदी की सलाह दी है। जैसे छोटी-छोटी शुरुआती धाराओं से विशाल नदी बनती है, वैसे ही इन छोटी-छोटी पहलों से हमारा विसर्जन भी पूरी तरह शुद्ध और पवित्र होने की तरफ बढ़ सकता है।

1,870 दुर्गा प्रतिमाओं के विसर्जन का इंतजाम है  इलाहाबाद शहरी और ग्रामीण इलाके में इस साल 

800 से ज्यादा दुर्गा प्रतिमाएं स्थापित होती हैं केवल दिल्ली में हर साल

कोलकाता में आज से लगभग सौ साल पहले इक्का-दुक्का प्रतिमाएं होती थीं, करीब 50 वर्ष पहले यह संख्या 300-400 रही होगी, पर आज अकेले कोलकाता शहर में 2,500 से ज्यादा दुर्गा पंडाल सजते हैं, उपनगरों में इसके अतिरिक्त पंडाल बनते हैं।

प्रदूषण का अध्ययन
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने 2010 में देश के चुनिंदा तालाबों पर एक अध्ययन किया था, जिसमें उन्होंने पाया-
-विसर्जन के बाद पानी में एसिड की मात्रा अधिक मिली।
-टीडीएस (टोटल डिजॉल्व्ड सॉलिड) बढ़ कर 100 प्रतिशत तक पहुंच गए थे।
-विसर्जन के बाद शाम के समय पानी में ऑक्सीजन की मात्रा कम होने लगी थी।
-पानी के भीतर भारी खनिज तत्व जैसे लोहा, तांबा आदि की मात्रा 200 से 300 फीसदी तक बढ़ गई थी।

ये होती हैं समस्याएं
-प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी मूर्तियों को पूरी तरह से विघटित होने में कई माह से लेकर वर्षों तक का समय लग सकता है।
-ये पानी में ऑक्सीजन के स्तर को कम कर देती हैं, जिससे मछली और अन्य छोटे जीव मरने
लगते हैं।
-मूर्तियों पर जो पेंट किया जाता है, वह मर्करी और लेड से निर्मित होता है, जो मूर्ति डूबने के बाद पानी में ही तैरता रहता है।  
-पानी में एसिड बढ़ जाता है।
-जो मूर्तियां प्लास्टिक, सीमेंट आदि से बनी होती हैं, वे भी पानी में गलती नहीं हैं और उसे प्रदूषित करती हैं।
-मूर्तियों पर चढ़ाई गई चीजें जैसे प्लास्टिक के फूल, कपड़े, धूप, कपूर और अन्य तत्व भी पानी में प्रवाहित कर दिए जाते हैं, जिनसे प्रदूषण काफी बढ़ जाता है।

विसर्जन के दिशानिर्देश
-मूर्तियां प्राकृतिक सामान से निर्मित होनी चाहिए, जिनका उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में किया गया है। मिट्टी का प्रयोग होना चाहिए।
-मूर्तियों पर पेंटिंग कम हो। अगर आवश्यकता है तो नॉन टॉक्सिक प्राकृतिक डाई का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। ऐसे रंग जो पानी में घुल जाएं, उनका प्रयोग किया जाना चाहिए।
-पूजन सामग्री जैसे फूल, वस्त्र, सजावटी सामान आदि को विसर्जन से पूर्व हटा देना चाहिए।
-लोगों के लिए जागरुकता कार्यक्रम चला कर उन्हें यह बताना चाहिए कि विसर्जन से शरीर पर क्या प्रभाव पड़ सकता है।
 मूर्ति विसर्जन के दिशानिर्देश, केंद्रीय प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड

मूर्ति पूजा के बड़े सार्वजनिक आयोजन
गणपति महोत्सव- माना जाता है कि मराठा शासक छत्रपति शिवाजी ने मुगलों के खिलाफ सामूहिक चेतना पैदा करने के लिए सत्रहवीं सदी में इसकी शुरुआत की थी। लेकिन 1893 में जब अंग्रेजों ने धार्मिक जुलूस निकालने पर प्रतिबंध लगाया तो बाल गंगाधर तिलक ने इसे पुनर्जीवित किया। अब पूरे देश में गणपति की मूर्तियां स्थापित की जाती हैं।

दुर्गा पूजा- 11वीं सदी में भी इसके प्रचलित होने के संदर्भ मिलते हैं। अभी पश्चिम बंगाल व  बिहार, झारखंड, असम, त्रिपुरा, ओडिशा, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में बड़ी संख्या में मूर्तियां स्थापित होती हैं। दुर्गा पूजा लगभग पूरे देश में मनाई जाती है।  

काली पूजा- पश्चिम बंगाल में प्रचलित इस पूजा ने 19वीं सदी में लोकप्रियता हासिल की। इस पूजा में स्थापित देवी प्रतिमा का रात्रि में ही विसर्जन कर दिया जाता है। बंगाल की यह सबसे बड़ी पूजा बनती जा रही है।

सरस्वती पूजा- मूलत: बंगाल, बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल में वसंत पंचमी के दिन विद्या की देवी की पूजा का विस्तार तेजी से हो रहा है। अब दिल्ली में भी बड़ी संख्या में देवी सरस्वती की मूर्तियां स्थापित की जाती हैं।

विश्वकर्मा पूजा- उत्तर व पूर्वी भारत के हिस्सों में 17 या 18 सितंबर को विश्वकर्मा पूजा के अवसर पर बड़ी संख्या में प्रतिमाएं स्थापित की जाती हैं।

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