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राष्ट्रीय-डाल्फिन तस्करीः डाल्फिन को बचाने के प्रयास जारी

दुनिया में विलुप्ती की कगार पर पहुंची डाल्फिन के अस्तित्व को बचाने का काम भारत में युद्ध-स्तर पर जारी है और इसके लिए आईआईटी दिल्ली एवं टोकियो यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में...

राष्ट्रीय-डाल्फिन तस्करीः डाल्फिन को बचाने के प्रयास जारी
एजेंसीWed, 06 May 2015 04:41 PM
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दुनिया में विलुप्ती की कगार पर पहुंची डाल्फिन के अस्तित्व को बचाने का काम भारत में युद्ध-स्तर पर जारी है और इसके लिए आईआईटी दिल्ली एवं टोकियो यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में गंगा नदी में प्रयासरत हैं।

वैज्ञानिकों के अलग-अलग दल डाल्फिन के व्यवहार का बारीकी से अध्ययन भी कर रहे हैं। देश में अब इस जीव की संख्या दो हजार ही बची है। वैज्ञानिकों ने बुलंदशहर के कर्णवास मे गंगा नदी के अन्दर विभिन्न प्रकार के अनेक उपकरण भी लगाये हैं।

वन रेन्जर डाम् कमल किशोर ने बताया कि शक्तिवर्धक दवाई के लिए बेतहाशा शिकार किए जाने से करोड़ो की संख्या में पाया जाने वाला यह जीव अब अपने अस्तित्व का संकट झेल रहा है।

हाल ही में कराए गए एक सर्वे के अनुसार देश की चम्बल, यमुना, बेतवा, केन, सोन, गंगा तथा घाघरा नदी में करीब 2000 डाल्फिन पाई जाती है। यह एक मछलीनुमा एक ऐसा जीव है जो स्तनधारी भी है।

कमल किशोर ने कहा कि केन्द्र सरकार ने 1972 के भारतीय वन्य जीव संरक्षण कानून के तहत गंगा नदी के 86 किलोमीटर के क्षेत्रफल (रामरस साईड) को विश्व धरोहर के रूप में घोषित कर इसमें डाल्फिन मछली को प्रवाहित किया था।

हाल ही में बुलंदशहर में इनकी संख्या 50 आंकी गई, जबकि चम्बल नदी में डाल्फिन 100 से घटकर अब 75 रह गयी है। भारतीय नदियों से डाल्फिन के गायब होने एवं रहस्यमय ढंग से मारे जाने पर पास के देश चीन व हांगकांग के तस्करों पर अन्देशा जाता रहा है।

सेवियर्स संस्था की सचिव स्वाति शर्मा और विश्व प्रकृति निधि के अधिकारियों के मुताबिक डाल्फिन की प्रजाति को भारत, नेपाल, भूटान और बंगला देश की गंगा, मेघना और ब्रह्मपुत्र नदियों में तथा बंगला देश की कर्णफूली नदी में देखा जा सकता है। उत्तर प्रदेश के मेरठ, बिजनौर, मुरादाबाद, ब्रजघाट और बुलंदशहर में बह रही गंगा में डाल्फिन विचरण करती रहती हैं।

डाल्फिन के लिए संरक्षित किये गये बिजनौर बैराज से बुलन्दशहर के नरौरा बैराज तक 165 किलोमीटर का जल क्षेत्र इसके लिए संरक्षित कर रखा है। गौरतलब है कि गढ़ से लेकर नरौरा तक 86 किलोमीटर का क्षेत्र रामरस क्षेत्र घोषित है। इस जोन को डाल्फिन के प्रजनन के लिये संरक्षित रखा गया है। यहां वर्ष 2005 में इनकी संख्या 35 थी, जो देखभाल के मद्देनजर 2015 में 50 बतायी गयी है।

देश की चम्बल, यमुना, बेतवा, केन, सोन, गंगा तथा घाघरा नदी में ये उछलकूद करती हुई करीब 2000 डाल्फिन पाई जाती हैं। यह मछली नहीं, दरअसल एक स्तनधारी जीव है।

केन्द्र सरकार ने 1972 के भारतीय वन्य जीव संरक्षण कानून के दायरे में भी गंगा डाल्फिन को शामिल किया था। जैव विविधता के लिहाज से 86 किलोमीटर रामरस साईट विश्व धरोहर घोषित भी हो चुका है।

डाल्फिन पर लम्बे समय से शोध कर रहे बंगाल के कुंजल राय चौधरी ने बताया कि चिंताजनक बात यह है कि डाल्फिन की मृत्यु दर 10 प्रतिशत का आंकडा पार कर चुकी है। उन्होंने डाल्फिन पर भारी संकट की आशंका जताते हुए वन अधिकारियों को बताया कि अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में डाल्फिन के अवशेषों-विशेषकर तेल की भारी मांग है।

तेल को कामोत्तेजक व शक्तिवर्धक माना जाता है। मांस का इस्तेमाल औषधि के रूप में होता है। चीन व हांगकांग जैसे कई देशो में इसके मांस व तेल की तस्करी होती रही है। गंगा प्रदूषण की मार भी इस पर बहुत भारी पड़ रही है।

कमल किशोर ने बताया कि गंगा पर होने वाले बैराजों का निर्माण भी डाल्फिन के लिए सबसे बड़ी समस्या है। इस निर्माण के कारण गंगा में गंदगी और रेत बढ रही है और गंगा का जल स्तर घट रहा है। इसके अलावा पलेज की खेती भी डाल्फिन की जान की दुश्मन बनी हुई है, जिसमें इस्तेमाल होने वाली रासायनिक खाद डाल्फिन को निगल रही है।

वाइल्ड फेडरेशन आफ इंडिया के अधिकारियों के मुताबिक डाल्फिन की प्रजाति लुप्त होने के कगार पर है। बुलंदशहर में अब तक कई डाल्फिन मृत मिली हैं। फैक्ट्रियों, सीवर व आवासीय क्षेत्रों से निकलने वाला प्रदूषित कचरा, दूषित पानी, नालों के माध्यम से गंगा में डाला जा रहा है जिससे जीवों पर खतरा मंडराने लगा है।

डाल्फिन को आंखों से दिखाई नही देता। केवल आंख से निकलने वाली तरंगे ही इसे दिशा बोध कराती हैं। अब सूत के बजाय शिकारी नाइलान का जाल इसे पकडने में इस्तेमाल करने लगे हैं। इनसे टकराकर तरंग वापस नहीं लौटती और निरीह डाल्फिन शिकार बन जाती।

डाल्फिन को केन्द्र सरकार ने 2009 में भारत का राष्ट्रीय जलीय जीव घोषित किया है। वह स्तनधारी जीव पवित्र गंगा नदी की शुद्धता को भी प्रकट करता है। क्योंकि यह केवल शुद्ध और मीठे पानी में ही जीवित रह सकता है।

बताया जाता है कि डाल्फिन मछुआरों को मछली पकड़ने में मदद करती रही है। यहां पर मछुआरों को जब मछलियां पकड़नी होती है, तब वे पानी में पैरों के माध्यम से एक विशेष प्रकार की लहर व मुंह से विशिष्ट प्रकार की ध्वनि उत्पन्न करते हैं। इन संकोतों का अर्थ समझकर डाल्फिन सहायता के लिए तत्काल प्रस्तुत होती है।

डाल्फिन का झुण्ड चारों ओर से मछलियों को घेर कर उनकी ओर जाती है और मछुआरे उन्हें जाल फेंक कर फंसा लेते हैं। इस प्रकार मछली पकडने का कार्य अत्यन्त सरल हो जाता है।

वन रेंजर कमल किशोर ने बताया कि पश्चिमी बंगाल के बैरकपुर की सेंट्रल इनलैंड फिशरीज इंस्टीट्यूट के सर्वेक्षण में गढ से लेकर बुलंदशहर के नरौरा बैराज तक गंगा में मछलियों की 45 प्रजातियां हैं, जबकि गंगा के पानी को साफ करने वाली मछली एल्गी की तकरीबन 700 किस्में हैं।

विश्व में पाये जाने वाले कछुओं की 24 में से 11 प्रजाति जिले की गंगा नदी में मौजूद है। शिकारियों से बचाने के लिए रात के समय मे कर्मचारियों की गश्त बढा दी है। समय-समय पर वरिष्ठ अधिकारी जांच के लिये जाते हैं।

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