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Hindi News‘चला-चली’ के डीजीपी यानी अनुशासन न दंड का अधिकार

‘चला-चली’ के डीजीपी यानी अनुशासन न दंड का अधिकार

मुजफ्फरनगर में दिनों-दिन हालात खराब हो रहे थे। एक डीजी ने जिले में हालात काबू करने के लिए सख्ती करने को कहा। कुछ दिनों बाद उन्हें रिटायर होना था। जिलों के अधिकारी तो ‘जी सर’-‘जी...

‘चला-चली’ के डीजीपी यानी अनुशासन न दंड का अधिकार
लाइव हिन्दुस्तान टीमTue, 03 Feb 2015 11:26 PM
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मुजफ्फरनगर में दिनों-दिन हालात खराब हो रहे थे। एक डीजी ने जिले में हालात काबू करने के लिए सख्ती करने को कहा। कुछ दिनों बाद उन्हें रिटायर होना था। जिलों के अधिकारी तो ‘जी सर’-‘जी सर’ करते रहे लेकिन उनके निर्देशों को पूरे मन से लागू ही नहीं किया। नतीजा, बड़े दंगे के रूप में सामने आया।

लब्बोलुआब यह कि पुलिस के लीडर के बारे में मातहतों को संदेश हो कि वह ‘चला-चली’ की बेला में हैं, तो न पुलिस महकमे का चाल-चेहरा बदलने को कोई बड़ी कवायद रंग ला पाती है और न उसके निर्देशों का कोई जमीनी असर दिखाई देता है। प्रदेश में हाल के दिनों में तो कुछ ऐसा ही होता नज़र आ रहा है। पूर्व डीजीपी अरुण कुमार गुप्ता ने कई वरिष्ठ एडीजी को मौके पर जाकर जनता से जुड़ी पुलिस सेवाओं का सर्वे करने को कहा। कागजों में तो एडीजी द्वारा फीडबैक लेने की बात कही गई लेकिन हकीकत में कितने एडीजी ने जिलों का दौरा किया? वे कहां-कहां गए? कुछ अता-पता नहीं।

डीजीपी द्वारा पुलिस अधीक्षकों को भेजे गए सर्कुलर कानूनी रूप से पुलिस रेग्यूलेशन के समतुल्य माने जाते हैं। कई बार सुप्रीम कोर्ट भी, ऐसे मामले में जहां अधिनियम अथवा पुलिस रेग्यूलेशन स्पष्ट नहीं है, वहां सर्कुलर को विधिक महत्व दे चुका है लेकिन हाल के दिनों में अल्प अवधि के डीजीपी की तैनाती से नई दिक्कतें पेश आनी शुरू हो गई हैं। न तो कोई उनके सर्कुलर को वैसा महत्व दे रहा है, जैसा दिया जाना चाहिए। न ही उस पर निचले स्तर पर प्रभावी कार्रवाई ही हो रही है।

यही नहीं, उन्हें कानूनन किसी माहतत के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने का मौका भी नहीं मिलता। वजह है कि किसी भी विभागीय जांच के बाद प्रथम दृष्टया दोषी पाए गए अधिकारी को कार्रवाई के लिए नोटिस देने के बाद उसे सुनने के लिए कम से कम तीन महीने का वक्त देने का नियम है। यही नहीं ‘शार्ट टर्म’ के डीजीपी न तो किसी आईपीएस का और ही किस अन्य की चरित्र पंजिका लिख सकते हैं। वजह है कि इसके लिए भी कम के कम तीन महीने का वक्त जरूरी होना चाहिए। नतीजतन, अनुशासनहीनता को बढ़ावा मिलता है।

पूर्व डीजीपी श्रीराम अरुण कहते हैं-‘सवाल है कि अगर कोई सरकार का मुखिया दो-दो महीने का हो तो क्या होगा? वैसे ही डीजीपी को अपनी सोच, सरकार की नीतियों पर अमल के लिए वक्त तो मिले, तभी यूपी पुलिस जैसी बड़ी फोर्स पर अधिकारी की हनक बनती है और अनुशासन आता है। छोटी अवधि का डीजीपी होने से गलत संदेश जाता है। अधिकारी सुनते नहीं और जनता सोचती है कि इनसे क्या दुखड़ा रोएं? ये रहेंगे कितने दिन।’

अल्प अवधि के डीजीपी
डीजी आरके तिवारी-एक महीना
डीजी बृजलाल करीब साढ़े तीन महीना
डीजी रिजवान अहमद सिर्फ 59 दिन
डीजी अरुण कुमार गुप्ता-31 दिन
डीजी एके जैन-59 दिन

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