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अधूरी कामनाओं के वन में भटकती एक कवियित्री

‘..मुङो नहीं दरकार छलनामय घरेलू सुखों, गुड-नाइट चुंबनों या साप्ताहिक खतों की जो, ‘माय डियरेस्ट’ संबोधन से शुरू होते हैं उन ववाहिक कस्मों का खोखलापन और डबलबैड का अकेलापन भी मैं...

अधूरी कामनाओं के वन में भटकती एक कवियित्री
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 06 Jun 2009 10:04 PM
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‘..मुङो नहीं दरकार छलनामय घरेलू सुखों,
गुड-नाइट चुंबनों या साप्ताहिक खतों की
जो, ‘माय डियरेस्ट’ संबोधन से शुरू होते हैं
उन ववाहिक कस्मों का खोखलापन
और डबलबैड का अकेलापन भी मैं जन चुकी हू,
जिस पर लेटा मेरा संगी स्वप्न देखता है किसी और का/ जो उसकी बीबी से कहीं बड़ी छिनाल है..’
 (अन्नामलाई कविताओं से)

गत दो जून को केरल में साहित्यप्रेमी पाठकों की एक विशाल भीड़ ने उपरोक्त पंक्तियों की बेबाक, चर्चित और विवादास्पद लेखिका कमला दास को अश्रुपूरित अंतिम विदा दी। 1934 में केरल के अत्यंत संपन्न नायर परिवार में जन्मी कमला दास उर्फ माधवी उर्फ एमी उर्फ कमला सुरैया का जीवन विवादों से भरा रहा। अपनी एक शुरुआती रचना में उन्होंने लिखा था- ‘तुम एमी हो, या कमला या कि माधवी कुट्टी, अब वक्त आ गया है एक नाम एक रोल चुनने का।’

उनका जीवन और लेखन दोनों अधूरी कामनाओं के वन में अपनी अस्मिता की एक लंबी तलाश है। 1975 में भारतीय महिलाओं की स्थिति के पहले गहरे और औपचारिक सरकारी आकलन-टुवर्ड्स इक्वॉलिटी, ने स्तब्धकारी ब्योरों और ऑंकड़ों से सिद्ध कर दिया, कि आजद भारत की महिला आबादी दरअसल कितनी दयनीय और परमुखापेक्षी स्थिति में जी रही है।

इसके सिर्फ एक साल बाद 1976 में कमला दास की बेबाक जीवनी ‘माय स्टोरी’ प्रकाशित हुई।  एक ऊपरी तौर से संपन्न सुखी गृहस्थ स्त्री की यौन कामनाओं के सामाजिक वजर्नाओं से टकराव और ववाहिक जीवन की भीतरी दरारों के इस बेबाक चित्रण पर बहुत बबाल उठा था। बाद में उन्होंने इसे फिक्शन घोषित कर दिया, पर एक बच्चे की भोली बेबाकी से यह जोड़ना न भूलीं, कि ‘मुङो तो प्यार की तलाश थी। और अगर प्यार घर में न मिले, तो पैर तो भटकेंगे ही।’

1934 में केरल के पुन्नायरुकरुलम् (त्रिचूर जिला) के एक बहुत सम्पन्न मातृसत्ताक नायर परिवार में जन्मी कमला दास के पिता कलकत्ता में ऊॅंचे ओहदे पर थे। वहॉं उनका बचपन उस वक्त के दूसरे संभ्रांत सम्पन्न परिवारों  की  बच्चियों की ही तरह लिखने-पढ़ने-खाने-पीने की सुविधाओं के बावजूद घर की चहारदीवारियों  सिमटा रहा। उन्हें घर में ही पढ़ाया-लिखाया गया, और फिर जसा तब सामान्य चलन था, 15 वर्ष की कोमल आयु में अपनी उम्र से 15 वर्ष बड़े रिजर्व बैंक के एक आला अफसर से ब्याह दिया गया।

सोलह वर्ष की उम्र में मानसिक परिपक्वता पाने से पहले ही कमला मॉं बन चुकी थीं। बाद को उन्होंने बेबाकी से लिखा कि सचमुच में मॉं बनना क्या होता है, यह तो उन्होंने वर्षो बाद अपने तीसरे बेटे के जन्म के साथ ही समझ पाया। माधवी कुट्टी उनकी नानी का नाम था, जिससे वे मलयालम में लिखती थीं। अंग्रेजी में उन्होंने कमला दास के नाम से लिखा। लेखन और पेंटिंग से भी जीवन का सूनापन न भर पाईं तो 1984 में उन्होंने एक राजनैतिक पार्टी बना कर चुनाव भी लड़ा, पर जमानत जब्त हो गई।

इसके बाद वे राजनीति से हट गईं, और क्रमश: सार्वजनिक जीवन से भी। 1999 में अचानक धर्मातरण कर उन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया तो सुरैया नाम भी उनसे जुड़ गया। बाद को पर्दाप्रथा के विरोध तथा अभिव्यक्ित की आजदी  की मॉंग को लेकर कट्टर मुल्लाओं से भी उनकी ठनी। और ऐसे तमाम लंबे और टकराव से भरे दौरों से गुजरती कमला ने लगातार तीन दशकों तक कविता, कहानी, उपन्यास और आत्मवृत्त लिखे।

कुछ साल पहले राजधानी से प्रकाशित होने वाली एक जनीमानी लघु पत्रिका ‘दि लिटिल मैगजीन’ द्वारा जब सत्तर पार कर चुकी कमला सुरैया को द. एशियाई साहित्य सम्मान से नवाज गया, तब तक वे व्हील चेयर से बंध चुकी थीं। उनका सहज सौंदर्य और ओजस्वी वक्तृता अलबत्ता बरकरार थे। अपने भाषण में उन्होंने अपने मार्मिक संस्मरणों और दहलाने वाली बेबाकी से श्रोताओं को हिला दिया।

उन्होंने बताया कि किस तरह पति की मौत के बाद तीन बेटों के बावजूद वे लगातार एकाकी होती चली गईं। उपेक्षित मॉं और समृद्ध लेकिन नौकरों पर आश्रित पर्दानशीन विधवा के सूने जीवन ने उन्हें एक बार मृत्यु का वरण करने को बहुत उकसाया तो वे बुर्का पहन कर एक पेशेवर हत्यारे के पास (घर के नौकरों से छिपकर) त्रिची की अंधेरी गलियों के बीच एक बदनाम इलाके में एक स्कूटर में बैठ कर ज पहुंचीं।

उन्होंने मवाली से पूछा कि क्या तुम पैसे लेकर लोगों को खलास करने का काम करते हो? तो पहले तो वह भी भौंचक्का रह गया। फिर वह उग्र हुआ, और गरज, कौन हो तुम? किसने मेरा पता दिया तुम्हें? कमला ने अपने स्वाभाविक भोलेपन से उसे पता देने वालों का नाम बताया, तो मवाली ने कुछ आश्वस्त होकर पूछा- ‘किसे खत्म करना है?’ कमला ने कहा- ‘मुङो।’ -
‘क्यों ?’
‘क्योंकि मैं जीवन से उकता चुकी हू, और अपने हाथों अपने को मारने की हिम्मत नहीं कर पाती। तुम्हें जितना चाहिए मुझसे एडवांस में ले लो।’ कमला ने कहा। मवाली कुछ देर तो स्तब्ध इस विचित्र महिला को ताकता रहा, फिर समझ बुझ कर उन्हें वापस घर छोड़ गया।

बाद में इस अनुभव पर उन्होंने मलयालम में कहानी लिखी, तो उनके आलोचकों ने मुंह बिचकाया- भला उच्च परिवारों की महिलाओं के साथ ऐसा भी कहीं होता है? कमला के जीवन को लेकर यह सवाल कई बार पूछा जता रहा। बचपन से ही उन्मुक्त साहित्यिक परिवेश में पली कमला की मॉं, नालापट बालमणि अम्मा मलयाली की चर्चित कवियित्री थीं, और उनके नाना-मामा भी लेखक रहे। बड़े पुत्र प्रख्यात मलयालम दैनिक मातृभूमि के प्रधान सम्पादक थे।

अपने जीवनकाल में कमला साहित्य अकादमी, एशियन पोएट्री अवार्ड तथा कई अन्य पुरस्कारों से वे नवाजी गईं। पर पुरस्कार के लिए वे नहीं लिखती थीं, न ही अभिव्यक्ित की आजदी की लड़ाई इतने मोर्चो पर मुखरता से लड़ने के बावजूद वे नारी मुक्ित की पैरोकार बनीं। उल्टे जीवनभर मुक्ित की तलाश करने के बाद अंत में उन्होंने स्वेच्छया धर्मातरण कर पर्दे के पीछे छिपना चुन लिया।

कमला का पूरा रचनाकर्मी जीवन आज समग्रता से देखने पर हमारे समाज की एक ऐसी मेधावी रचनाधर्मी औरत की कहानी लगती है, जो दिए गए जीवन में बदलाव की जरूरत पहचानती तो है, पर फिर भी कहीं वह पारंपरिक स्त्रीत्व के बीच ही अपनी मुक्ित खोजना चाहती है।

इसलिए उनकी रचनाओं में स्वतंत्रता की एक स्पष्ट कल्पना और परिभाषा की बजए परतंत्रता का मुखर निषेध और प्रतिरोध ही अधिक मार्मिकता से उभरे हैं। अपनी सर्वÞोष्ठ अभिव्यक्ित के क्षणों में उनका लेखन भाषा और कथ्य दोनों स्तरों पर परंपरा के पाखण्ड का संहार करता है, पर अपनी कमजोरी के बिंदु पर अपनी लेखनी क्रोध और झुंझलाहट आत्मदया से भरे स्वरों में विलीन हो जती है। फिर भी इस लेखिका की मूल ईमानदारी और लेखन के प्रति समर्पण असंदिग्ध हैं।

कोच्चि की हवा को अपने लिए दमघोंट और अपने पाठकों को विमुख हुआ कह कर कमला सुरैया ने जीवन के अंतिम दो वर्ष पुणो में अपने छोटे बेटे के साथ बिताए। पर जब मरने के बाद बेटों के बीच लंबे वाद-विवाद के बाद उन्हें इस्लामिक रिवाजों के अनुसार उनके मातृदेश में ही राजकीय सम्मान के साथ दफनाया गया तो उनके प्रशंसकों की भारी भीड़ ने उनकी लोकप्रियता को रेखांकित किया।

जाने अपने अंतिम संस्कार और जनता के जुड़ाव को लेकर लेखिका कमला सहमत होती या नहीं, पर यदि यह तय है कि वे जिंदा हो पातीं, तो जाते-जाते इस पर भी शायद एक और मार्मिक कहानी लिख डालतीं। भारत में उनका जीवन और प्रेम सम्बंध जसे अप्रत्याशित और नियम विरुद्ध रहे, वसे ही उनका अंत भी।

शायद कुल मिलाकर किसी भी लेखक की तरह वह भी अपने को पारदर्शिता से अभिव्यक्त करना चाहती थीं, और यह उन्होंने किया, कभी सफलतापूर्वक, कभी नहीं। अपनी रचनाओं में अपने स्त्री-हृदय को निर्वसन कर चुकी कमला सुरैया भारतीय स्त्री की उन शिल्प आकृतियों की तरह है, जो सदियों से आलोचना से लापरवाह उन्मुक्त, निर्वसन र्निबध स्वतंत्रता की सुन्दर जीवंत परिभाषा व्यक्त कर रही हैं।

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