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दहशत के सामने दिशाहीन पाकिस्तान

इससे तकलीफदेह मंजर कोई और हो नहीं सकता और ऐसी बर्बरता हम अपने बुरे से बुरे दुश्मन के साथ भी नहीं सोच सकते। फिर मासूम बच्चों के कत्लेआम की निंदा के लिए अल्फाज कहां से ढूंढें? लेकिन पेशावर में मंगलवार...

दहशत के सामने दिशाहीन पाकिस्तान
लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 17 Dec 2014 10:41 PM
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इससे तकलीफदेह मंजर कोई और हो नहीं सकता और ऐसी बर्बरता हम अपने बुरे से बुरे दुश्मन के साथ भी नहीं सोच सकते। फिर मासूम बच्चों के कत्लेआम की निंदा के लिए अल्फाज कहां से ढूंढें? लेकिन पेशावर में मंगलवार की सुबह जो कुछ हुआ, वह पिछले 40 साल की पाकिस्तानी नीतियों का ही नतीजा है, और यह हादसा साफ-साफ दर्शाता है कि पड़ोसी मुल्क का सत्ता तंत्र किस कदर बिखर गया है। 

सभी जानते हैं कि पाकिस्तान का जो ढांचा है, उसमें सिविलियन नजरिये से सुरक्षा संबंधी नीतियां नहीं बनतीं, फौजी नजरिया उन पर पूरी तरह से हावी होता है। और फौज का जोर सामरिक मजबूती पर रहता है। उसकी नीतियां आम अवाम के हितों से नहीं, फौजी हितों से मेल खाती हैं। 9/11 को ही ‘कट ऑफ प्वॉइंट’ मान लें, तो पाकिस्तान ने पूरी दुनिया को यह जताने की कोशिश की थी कि दहशतगर्दी को लेकर वह अब बेहद संजीदा है और इसके खिलाफ हर जंग में वह दुनिया के साथ खड़ा होगा। अफगानिस्तान में तालिबान के खिलाफ अमेरिकी जंग में वह शामिल भी हो गया और पूरी दुनिया से इसके नाम पर भारी इमदाद बटोरता रहा। हकीकत में वह उन इमदादों से छोटे-छोटे गिरोहों की तर्बियत करता रहा, उनको पालता-पोसता रहा। ये छोटे-छोटे गिरोह शुरुआत में अफगानिस्तानी तालिबान से जुड़े हुए थे। लेकिन धीरे-धीरे ये ताकतवर होते गए और इन्होंने रियासत के अंदर अपनी रियासतें बना लीं। इन्हीं गिरोहों में से एक ने पेशावर की वारदात को अंजाम दिया है।

पाकिस्तानी नीति की विडंबना देखिए कि अब जब 13-14 साल के बाद अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजें बाहर जा रही हैं, तो वह काबुल में तालिबान को सत्ता में बैठाने की कोशिश कर रहा है, और दूसरी तरफ अपनी धरती से ‘तालिबान पाकिस्तान’ का सफाया करना चाहता है। सवाल यह है कि एक बार अफगानिस्तान की सत्ता पर तालिबान काबिज हो गया, तो क्या वह तालिबान पाकिस्तान से अपने रिश्ते खत्म कर देगा? मुझे तो ऐसा नहीं लगता। ऐसे में, ये छोटी-छोटी रियासतें (आतंकी जमातें) पाकिस्तान को दीमक की तरह चाट जाएंगी।

जब से नॉर्थ वजीरिस्तान में पाकिस्तानी फौज ने आतंकी गिरोहों के खिलाफ जर्ब-ए-अज्ब ऑपरेशन शुरू किया है, तब से पाकिस्तानी हुकूमत यह दावा करती है कि उसने ‘गुड तालिबान’ और ‘बैड तालिबान’ के फर्क को खत्म कर दिया है। लेकिन हकीकत में ऐसा है नहीं। अमेरिका से बातचीत ‘गुड तालिबान’ को काबुल की सत्ता में हिस्सेदारी दिलाने को लेकर ही हो रही है। वैसे अगर हम एक पल के लिए मान भी लें कि पाकिस्तान सरकार सच बोल रही है, तो लाहौर में हाफिज सईद और जैश-ए-मोहम्मद को प्रोत्साहन देकर वह आतंकवाद के खिलाफ जंग में ईमानदार होने का दावा कैसे कर सकती है? आने वाले दिन पाकिस्तान के लिए काफी संकट भरे हैं। तालिबान पाकिस्तान और जमात-उद-दावा, जैश-ए-मोहम्मद व हरकत-उल-मुजाहिदीन जैसे संगठनों के बीच एक बड़ा फर्क है। तालिबान पाकिस्तान सुदूर सरहदी इलाके से ऑपरेट करते हैं, लेकिन दूसरे तमाम गिरोहों ने तो लाहौर, कराची जैसे बड़े शहरों में अपनी जड़ें जमा ली हैं। उनकी तरफ से पेश चुनौतियों से निपटना पाकिस्तान के लिए खासा मुश्किल होगा।

पड़ोसी मुल्कों के खिलाफ जिहादियों के इस्तेमाल की नीति पाकिस्तान की एक बड़ी समस्या है। अब यह नीति खुद पाकिस्तान पर भारी पड़ रही है। लेकिन मेरी नजर में उसकी सबसे बड़ी समस्या तो सामाजिक स्तर पर है। पाकिस्तानी समाज में आज भी इस बात को लेकर कोई स्पष्टता नहीं है कि उसका असली दुश्मन कौन है? आप पेशावर की दर्दनाक घटना की ही नजीर ले लीजिए। इस हादसे के चंद मिनटों के बाद ही पाकिस्तानी मीडिया के एक तबके ने, जिसका फौज के साथ गहरा तालमेल है, इस कहानी को परोसना शुरू कर दिया कि यह हमला भारत ने करवाया है। पाकिस्तानी फौज इस जुमले का अरसे से इस्तेमाल करती रही है। जाहिर-सी बात है कि जब वहां दुश्मन की पहचान ही नहीं है, तो फिर उसका मुकाबला वे कैसे करेंगे?

वैसे, पाकिस्तान को लेकर हमारे देश में भी एक तरह से विमोह की स्थिति है। हमारे लोगों को लगता है कि पाकिस्तान को अकल आ जाएगी और इस हादसे के बाद आतंकवाद संबंधी उसकी नीतियां बदलेंगी। मुझे ऐसी कोई संभावना नहीं दिखती। भारत को अपना नजरिया बदलना होगा। दरअसल, हम लोगों में एक आदत है कि हम मुद्दों को उलझा देते हैं। सत्तर के दशक में भी हमने यह भ्रम पाल लिया था कि पाकिस्तानी फौज का रवैया भारत के प्रति उतना तल्ख नहीं है, जैसा कि प्रचारित किया जाता है। उस समय भी इस दलील का कोई ठोस आधार नहीं था। आजकल भी हम हिन्दुस्तानियों में एक मजबूत धारणा यह है कि दहशतगर्दी से हलकान आम पाकिस्तानी भारत के प्रति उदार नजरिया रखता है और आतंकवाद खत्म हो गया, तो दोनों देशों के रिश्ते बेहतर हो जाएंगे। इतना सरल मामला नहीं है। आतंकवाद का अंत दोनों देशों के बेहतर रिश्ते की जरूरत है, मगर वही सब कुछ नहीं है। क्या पाकिस्तान भारत के वजूद को तस्लीम करेगा? क्या वह भारत के साथ अमन-चैन से रहने को राजी होगा? वह कश्मीर मसले पर पीछे हटने को तैयार होगा या दोनों देशों के रिश्तों के बीच कश्मीर को केंद्रीय मुद्दा बनाने की अपनी जिद छोड़ेगा? इन सभी सवालों पर उसे स्पष्ट होने की जरूरत है।

इसलिए वक्त का तकाजा यही है कि हम अपनी आंखों पर पट्टी न बांधें और यथार्थवादी नजरिया अपनाएं। हमें पेशावर की घटना से सबक लेते हुए अपनी सुरक्षा नीतियों को ठोस बनाने की जरूरत है। अमेरिका, लंदन, सिडनी और पेशावर के हादसात को देखते हुए हमारी तैयारी आधुनिकतम होनी चाहिए। हम अपनी सुरक्षा व्यवस्थाओं को मजाक बना देते हैं। अमेरिकी सुरक्षा तंत्र को देखिए। अपनी तैयारियों को लेकर वह इतना मुस्तैद है कि वहां तमाम स्कूल-कॉलेजों, दफ्तरों, मॉल आदि में छह महीने में एक बार मॉक ड्रिल के जरिये कमियों की जांच की जाती है और जरूरत के मुताबिक तुरंत कदम उठा लिए जाते हैं। हमारे यहां आलम यह है कि सुरक्षा के लिए हमने जिस सबसे बड़े हिफाजती तंत्र ‘एनएसजी’ का गठन किया है, वह मानेसर में बैठा है। अपने शहरों की ट्रैफिक व्यवस्था का हाल देखकर एनएसजी वाले कितनी जल्दी घटनास्थल पर पहुंच सकेंगे, इसका हम-आप आसानी से अंदाज लगा सकते हैं। फिर स्थानीय पुलिस पेशावर जैसे हादसों से निपटने में कितनी सक्षम है, यह भी एक मुद्दा है। इसलिए हमें ‘सिक्युरिटी कल्चर’, ‘सेफ्टी कल्चर’ लाने की जरूरत है। अमेरिका के हर शहर में छोटे-छोटे दस्ते ऐसी स्थितियों से निपटने के लिए तैनात हैं। हमें भी पहले अपने बड़े शहरों में, फिर मध्यम दर्जे के नगरों में और अंतत: छोटे-छोटे शहरों तक ऐसी व्यवस्था ले जानी पड़ेगी।

इनके अलावा, बॉर्डर मैनेजमेंट को भी अचूक बनाने की आवश्यकता है। अक्सर सीमा की बात आते ही हम पाकिस्तान और बांग्लादेश से जुड़ी सीमाओं के बारे में सोचने लगते हैं और विशाल समुद्री सरहद को भूल जाते हैं। हमें इसे भी अभेद्य बनाना होगा। और अब इस बारे में सोचने का नहीं, बल्कि दम उठाने का वक्त है।
      (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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