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ताकि सड़क मौत का घर न बने

हर कुछ दिन बाद फुटपाथ पर सोने वालों का मौत के मुंह में समा जाना हमारी सामाजिक सीमा को उजागर करता है। एक और खूनी सड़क हादसा, रूह कंपाता एक और आंकड़ा। रात में एक शराबी तेज रफ्तार से वाहन चलाता है और...

ताकि सड़क मौत का घर न बने
लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 27 Aug 2014 10:29 PM
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हर कुछ दिन बाद फुटपाथ पर सोने वालों का मौत के मुंह में समा जाना हमारी सामाजिक सीमा को उजागर करता है।

एक और खूनी सड़क हादसा, रूह कंपाता एक और आंकड़ा। रात में एक शराबी तेज रफ्तार से वाहन चलाता है और अपना नियंत्रण खो बैठता है। वाहन रोड डिवाइडर पर चढ़ता है और 13 सोए हुए लोगों को कुचल देता है। अखबार की रिपोर्ट बताती है कि चालक गिरफ्तार हुआ, लेकिन अगले ही दिन उसे जमानत पर रिहा कर दिया गया। लोग इस घटना को अगले किसी हादसे तक के लिए भूल जाते हैं। दिल्ली में एक हफ्ते के अंदर बेघर लोगों से जुड़ी तीन दुर्घटनाएं हो चुकी हैं।


उस रात 13 लोग डिवाइडर पर 10 बजे के आसपास सोने की ही अवस्था में थे कि एक एसयूवी ने उन्हें रौंद दिया। घर की रंगाई-पुताई करने वाला 45 साल का गौतम, जो राजस्थान के हैं, उस हादसे को याद करते हुए कहते हैं कि रात को खाना खाने के कुछ देर बाद ‘मैं लगभग सो गया था कि तभी मुङो बड़ी तेज आवाज सुनाई दी, संयोग से मेरा बायां पैर मुड़ा हुआ था, इसलिए कार उस पर से नहीं गुजरी।’ असम से आए 30 साल के दिहाड़ी मजदूर विपुल बताते हैं कि ‘मुङो याद नहीं कि तब क्या हुआ था। एक जोर की आवाज हुई और हादसे के बाद मैं उठ नहीं सका।’ विपुल का दायां पैर बुरी तरह से जख्मी हो गया है। गौतम याद करते हैं कि ड्राइवर गाड़ी से बाहर निकला और उसने भागने की कोशिश भी की। विपुल ने कहा, ‘कार तब भी बंद नहीं हुई थी और वह आदमी सड़क की दूसरी तरफ भागा। लेकिन तब तक पुलिस मौके पर पहुंच चुकी थी और वह शायद घबराहट में सड़क भी पार नहीं कर पाया और पकड़ा गया।’ दरअसल, कुछ ही दूरी पर बने शेल्टर से एक सामाजिक कार्यकर्ता ने पुलिस को फोन कर दिया था और पुलिस की गाड़ी चंद मिनटों में घटनास्थल पर पहुंच गई। अगले आधे घंटे में पुलिस की तीन गाड़ियां और एक आपातकालीन एंबुलेंस अलग-अलग सरकारी अस्पतालों की तरफ घायलों को लेकर भागीं। इसके अगले दिन 36 साल के एकराज की मौत हो गई और छह अन्य आज भी अपनी जिंदगी बचाने की जद्दोजहद कर रहे हैं। अगर वे बच गए, तब भी उनमें से कई हमेशा के लिए अपाहिज हो जाएंगे।


ये लोग कौन हैं और क्यों ये व्यस्ततम हाई-वे के किनारे, फुटपाथों और रोड डिवाइडरों पर सोकर अपनी जिंदगी जोखिम में डालते हैं? इनमें लगभग सभी मर्द हैं, जो अपनी जिंदगी के किसी मोड़ पर गांव छोड़ आए हैं और अपने माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी और बच्चाों का पेट भरने के लिए काम की तलाश में दिल्ली आ गए हैं। उन्हें जो काम मिलता है, वह दिहाड़ी और अस्थायी होता है। उन्हें इतनी कम मजदूरी मिलती है कि वे अपने लिए किराये पर एक कमरा ले लें, तो घर भेजने के लिए पैसे नहीं बचेंगे। इसलिए वे सड़क किनारे सोने का जोखिम भरा फैसला लेते हैं, ताकि उनके परिजन जिंदा रह सकें।
हमारा साबका ऐसे बेघर लोगों से पड़ता रहता है, जो तय न्यूनतम मजदूरी से भी कम में अपने लिए नियमित काम नहीं ढूंढ़ पाते और घर भेजने के लिए बहुत थोड़ा जुटा पाते हैं। उनका स्वाभिमान अचानक पस्त हो जाता है, पारिवारिक संबंध कलहपूर्ण हो जाता है, कभी-कभी तो टूट भी जाता है और वे धीरे-धीरे नशाखोरी करने लगते हैं, भंडारे पर उनकी निर्भरता बढ़ती है और विवाह समारोहों में कुछ काम उन्हें कभी-कभार मिल जाता है या फिर वे  कूड़े-कचरे बीनने लगते हैं।
ऐसे ही बेचारे, बेसहाय, बेघर 4,000 आदमियों ने पुश्ते को अपना घर बनाया है। पुश्ता यमुना नदी का वह बांध वाला इलाका है, जो निगमबोध घाट से लगा है। वे पूरे दिन मुर्दे जलते देखने को बाध्य हैं। लाशों के जलने से निकला धुआं इनके फेफड़े में जाता है। ऐसा सिर्फ इसलिए कि यह इलाका इतना उजाड़ और बेकार है कि इस शहर ने इसे यों ही छोड़ दिया है। हमारे और अन्य संगठनों द्वारा चलाए जा रहे शेल्टर हर शाम बुरी तरह से भर जाते हैं और हजारों आदमियों को खुले में सोना पड़ता है। बेघर लोग बताते हैं कि क्यों, खास तौर पर गरमी और मानसून के महीनों में वे रोड डिवाइडरों और फुटपॉथों पर सोने का जोखिम मोल लेते हैं। अन्य कोई जगह, जैसे पार्क या पार्किग स्थलों में सोना लगभग असंभव होता है, क्योंकि वहां मच्छर धावा बोलते हैं। हाई-वे के जितना निकट वे सोते हैं, उतना ही उनके लिए सोना आसान होता है, क्योंकि गाड़ियों का धुआं मच्छरों को भगाता है। कड़वा सच यह है कि ये लोग हर रात अपनी जिंदगी जोखिम में इसलिए डालते हैं और वाहनों के कार्बन-उत्सजर्न से अपना फेफड़ा इसलिए बुरी तरह से खराब कर लेते हैं, क्योंकि यही वह तरीका है, जिससे वे रात में सो सकेंगे।


तीन साल पहले सर्दियों के दौरान जजों को लिखी मेरी चिट्ठी पर सुप्रीम कोर्ट ने सहमति जताते हुए सभी राज्य सरकारों को यह निर्देश दिया था कि सभी शहरों में बेघर पुरुष-स्त्रियों के लिए पर्याप्त संख्या में बुनियादी सुविधाओं से युक्त नाइट शेल्टर बनाए जाएं। देश की राजधानी में हाई कोर्ट ने दिल्ली सरकार को ऐसे ही निर्देश जारी किए और जन-भावनाओं से युक्त एक टीम की मदद से वह राज्य के प्रयासों की निगरानी भी कर रहा है। इस संदर्भ में दिल्ली ने अन्य राज्यों से बेहतर काम किया है। यहां शेल्टरों के लिए टिन की अस्थायी संरचनाएं बनाई गई हैं। लेकिन ये इस शहर की बेघर कामकाजी मर्द-औरतों को काफी कम आराम और सम्मान देती हैं। दूसरे शहर तो इससे भी कम सुविधा मुहैया कराते हैं। मुंबई में देश का सबसे अमीर, लेकिन सबसे कंजूस नगरपालिका है, इसने शेल्टर की स्थापना से इनकार कर दिया। पटना जैसे शहर ने शेल्टर खोले हैं, जो रिक्शा चालकों, कूड़ा बीनने वालों और दिहाड़ी मजदूरों से भरे होते हैं, लेकिन ये इतने गंदे होते हैं कि जानवर के रहने लायक भी नहीं कहे जा सकते।
ये वे लोग हैं, जो अपनी कड़ी मेहनत से अकेले पूरे परिवार की विपन्नता के खिलाफ दिलेरी से संघर्ष कर रहे हैं। महिलाएं तो चरम हिंसा भी ङोल रही हैं। हर कुछ दिन के बाद होने वाले सड़क हादसे बर्दाश्त करने की हमारी उस बड़ी सामाजिक सीमा को उजागर करते हैं, जिसमें बेघर लोगों को अपनी जिंदगी जोखिम में डालने के लिए बाध्य किया जाता है और जिसमें वे कुछ घंटों की नींद पूरी करने के लिए हर रात अपनी सेहत को नुकसान पहुंचाते हैं।


इस समस्या का हल ढूंढ़ना बहुत मुश्किल नहीं है। यह समस्या बेघर लोगों के लिए सरकार अनुदानित शेल्टरों और इससे बहुत ज्यादा की मांग करती है। हर शहर को कामकाजी पुरुषों और औरतों के लिए हॉस्टल बनाने चाहिए, जिनमें सस्ती दरों पर कमरे मिलें, ताकि सड़कों पर सोने की मजबूरी खत्म हो। हर शहर को किफायती किराये वाले मकान और अपने ही स्वामित्व में सामाजिक आवास की व्यवस्था में निवेश करना चाहिए।


यह हमारे समय की कटु सच्चई है कि हम इन छोटे सार्वजनिक निवेश के लिए राजी दिखाई नहीं देते। लेकिन गरीबों की जिंदगी इतनी सस्ती भी नहीं कि उन्हें हर रात कुछ देर की नींद के लिए मरने को छोड़ दिया जाए।

      (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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