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भारतीय मतदाता का जागृति काल

पड़ोसी देश म्यांमार की जन-योद्धा आंग सान सू की ने कभी कहा था कि आजादी और लोकतंत्र ऐसे ख्वाब हैं, जिन्हें आप त्याग नहीं सकते। कुछ लोगों को यह जानकर अचरज होगा कि 15 अगस्त, 1947 के बाद से हिन्दुस्तान के...

भारतीय मतदाता का जागृति काल
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Feb 2015 12:07 AM
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पड़ोसी देश म्यांमार की जन-योद्धा आंग सान सू की ने कभी कहा था कि आजादी और लोकतंत्र ऐसे ख्वाब हैं, जिन्हें आप त्याग नहीं सकते। कुछ लोगों को यह जानकर अचरज होगा कि 15 अगस्त, 1947 के बाद से हिन्दुस्तान के मतदाताओं ने चुनाव-दर-चुनाव इस कथन को सच साबित किया है।
कैसे?
बहुत दूर जाए बिना दिल्ली के चुनाव परिणामों से शुरू करता हूं। गई मई में नरेंद्र मोदी जब 282 सांसदों के साथ नई दिल्ली की सत्ता पर विराजे, तो उनके बहुमत का आंकड़ा देखकर लोगों को आश्चर्य हुआ। खुद भाजपा के रणनीतिकारों को ऐसी ऐतिहासिक विजय की उम्मीद नहीं थी। इसके बाद चार विधानसभाओं के नतीजों ने आभास दिया कि गुजरात के उनींदे से कस्बे वडनगर में जन्मे इस सियासी सूरमा ने त्रेता काल के रघुवंशियों की तरह अजेय अश्वमेध यज्ञ शुरू कर दिया है। यह विजय यात्रा क्या महज नौ महीने में थम गई? क्या दिल्ली जैसे छोटे प्रदेश ने इस असंभव को संभव कर दिखाया?

लोकसभा चुनावों के बाद प्रचार किया गया था कि अरविंद अति महत्वाकांक्षी हैं और ‘आप’ पार्टी नहीं, बल्कि अराजकतावादी आंदोलनकारियों का समूह है। ‘आप’ के कार्यकर्ता इससे हताश नहीं हुए। वे जनता के बीच चुपचाप काम करते रहे। इस दौरान उन्होंने न तो कोई शोशेबाजी की और न ही इस बात की चिंता कि कोई उनके बारे में क्या कह रहा है। नतीजे सुखद रहे। उन्हें उम्मीद से कहीं ज्यादा 67 सीटें मिलीं। भाजपा 70 सीटों वाली विधानसभा में सिर्फ तीन की संख्या पर सिमट आई और कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया। बहुत से ऐसे रिकॉर्ड बने और टूटे, जो 10 फरवरी तक लोगों की कल्पना से परे थे।

इन परिणामों से क्या यह मान लें कि मोदी का करिश्मा खत्म हो गया और एक नए ‘जादू’ का उदय हो चला है? कृपया ध्यान रखें, यह दो सियासी व्यक्तित्वों की हार-जीत से ज्यादा आशावान भारतीय मतदाताओं की व्याकुल आकांक्षाओं का कमाल है। इसे राजनेताओं के उत्थान-पतन से जोड़ना गफलत से ज्यादा कुछ न होगा। ऐसे ‘चमत्कार’ पहले भी हो चुके हैं।
नर बहादुर भंडारी का नाम याद है आपको? 1989 में उनके नेतृत्व में ‘सिक्किम संग्राम परिषद’ ने विधानसभा की सभी 32 सीटें जीत ली थीं। वह इस लोकप्रियता को कायम नहीं रख सके। उनकी पार्टी टूट गई और उन्हें विश्वास मत तक गंवाना पड़ा। वहां 2009 की विधानसभा का भी यही हाल था। इसके सभी सदस्य ‘सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट’ से ताल्लुक रखते थे। पवन चामलिंग उनके नेता हैं, जो पिछले 20 वर्षों से गंगटोक के सत्ता सदन में कायम हैं। कभी उन्होंने भंडारी की हुकूमत का खात्मा किया था। तब से अब तक मतदाताओं की पूरी पीढ़ी बदल गई, पर पवन जनता-जनार्दन के विश्वास को बनाए रखने में कामयाब रहे। भंडारी और चामलिंग के व्यक्तित्व और नियति का यह वैषम्य आजाद हिन्दुस्तान की सियासी हस्तियों के उत्थान-पतन का अनकहा लेखा-जोखा है।

इस तथ्य के आलोक में यदि लोकसभा और विधानसभा के मौजूदा चुनावों पर नजर डालें, तो सब कुछ स्पष्ट हो जाएगा। ऐसे प्रबल जनादेश परिपक्व होते भारतीय लोकतंत्र की निशानी हैं। ये नेताओं को भी आगाह करते हैं कि आपको सत्ता संभालते ही जनहित के कामों में जुट जाना होगा। अब यह उनके ऊपर है कि वे चामलिंग बनना चाहते हैं, या भंडारी? जिन लोगों ने इस तथ्य को नजरअंदाज किया, वे इतिहास की गर्त में समा गए।

उत्तर-पूर्व का एक और उदाहरण। 1980 के दशक की शुरुआत में भारत दो तरफ से जल रहा था। पंजाब में खाड़कू दस्ते सक्रिय थे। वे खून-खराबे के जरिये खालिस्तान का निर्माण चाहते थे। दूसरी तरफ असम में छात्र आंदोलनरत थे। ‘ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन’ की अगुवाई में बांगलादेशी घुसपैठियों के खिलाफ नौजवान आंदोलन कर रहे थे। उनके प्रदर्शन अक्सर हिंसक हो उठते और यदा-कदा हिंदीभाषी भी उनके शिकार बन जाते। इन आंदोलनकारियों में सबसे उभरता हुआ नाम प्रफुल्ल कुमार महंत का था। महंत ने तब तक जीवन के 30 बसंत तक नहीं देखे थे, पर उनकी लोकप्रियता किसी तपे-तपाए राजनेता से कम न थी। लगभग छह साल के संघर्ष के बाद 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के सामने आंदोलनकारी गुटों के साथ समझौता हुआ। उस दिन 15 अगस्त का दिन था और भारत की आजादी ने 38 साल पूरे किए थे।
 
उसी वर्ष दिसंबर में वहां चुनाव हुए और महंत की ‘असम गण परिषद’ 50 प्रतिशत से अधिक सीटें जीतकर सत्तासीन हुई। वह तब महज 33 साल के थे और राजनीति के क्षितिज पर सूरज की तरह चमकने का मौका उनके पास था। वह इसका लाभ नहीं उठा सके। सियासत की कालौंछ ने उनकी तेजस्विता को लील लिया। दो बार मुख्यमंत्री रहने के बावजूद प्रफुल्ल का शुमार असम के लोकप्रिय नेताओं में नहीं रह बचा है। वहां की विधानसभा में उनकी पार्टी के पास महज 10 सदस्य हैं। लोकसभा में उसकी नुमाइंदगी खत्म हो चुकी है और राज्यसभा में वह सिर्फ एक सीट कायम रख सकी है।

प्रफुल्ल कुमार महंत की ताजपोशी के ठीक 10 साल बाद मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं। इस पद पर बैठने वाली वह पहली दलित महिला थीं और उस समय उनकी उम्र थी मात्र 39 साल। 2007 में उन्होंने पूरे बहुमत के साथ देश के सबसे बड़े सूबे की सत्ता संभाली। उनके सहयोगी उत्साह रथ पर सवार हो उन्हें अगले प्रधानमंत्री के तौर पर पेश करने लगे, पर अगले चुनाव तक उनकी लोकप्रियता का ग्राफ गिर पड़ा। 2012 में उनके चिर विरोधी मुलायम सिंह की अगुवाई वाली समाजवादी पार्टी पूरे बहुमत के साथ सत्ता में आई। इस बार उनके पुत्र अखिलेश यादव के हाथ में हुकूमत की बागडोर सौंपी गई। क्या संयोग है! शपथ लेते समय उनकी आयु भी 39 वर्ष थी। पिछले लोकसभा चुनावों में मायावती एक भी सीट नहीं बचा सकीं और समाजवादी पार्टी को सिर्फ पांच सीटें मिलीं। 73 सीट भाजपा जीत ले गई, जो खुद विधानसभा में दयनीय स्थिति में है। ऐसा नहीं है कि बसपा और सपा पर आया संकट स्थायी है। ये जमी-जमाई पार्टियां हैं। मतदाता ने इन्हें वक्ती तौर पर झटका दिया है। यह देखना दिलचस्प होगा कि वे इस सदमे से कैसे उबरती हैं?

एक और बात। मतदाता अब लूली-लंगड़ी सरकारों पर यकीन नहीं करते। विधानसभा के पिछले 18 में से 14 चुनाव गवाह हैं कि लोग गठबंधन की राजनीति से आजिज आ चुके हैं। वे किसी एक पार्टी को इसलिए बहुमत से नवाजते हैं, ताकि मुख्यमंत्री अथवा प्रधानमंत्री अपने वायदों को अमली जामा पहनाकर जन-आकांक्षाओं पर खरे उतर सकें। जो दल ऐसा नहीं करते, उन्हें सत्ताच्युत होना पड़ता है। इसके लिए लोग मौन भाव से अगले चुनाव का इंतजार करते रहते हैं। महंत से मनमोहन सिंह तक बरास्ते के करुणानिधि इसके तमाम उदाहरण हैं।
लगता है चुनावों को अब व्यक्तित्वों की हार-जीत से ज्यादा जनता की उम्मीदों से जोड़कर देखा जाना चाहिए। मशहूर ब्रिटिश लेखक एलन मूर ने कहा है कि अवाम को अपनी सरकार से भयभीत नहीं होना चाहिए, बल्कि सरकार को अपनी जनता से डरते रहना चाहिए। शुक्र है, भारतीय मतदाता लोकतांत्रिक आजादी के इस मर्म को समझने में कामयाब रहे हैं। यह मतदाता की जागृति और हुक्मरानों की जवाबदेही का वक्त है। आप चाहें, तो इस पर इठला सकते हैं।

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