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हैप्पी बर्थ डे की राजनीति

नेताओं के जन्मदिन अब भारतीय राजनीति के कैलेंडर की एक महत्वपूर्ण तारीख बनते जा रहे हैं। देश के मध्यवर्गीय परिवारों में बच्चों के जन्मदिन मनाने की परंपरा बहुत पुरानी नहीं है, लेकिन दोस्तों ओर...

हैप्पी बर्थ डे की राजनीति
लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 14 Jan 2015 10:43 PM
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नेताओं के जन्मदिन अब भारतीय राजनीति के कैलेंडर की एक महत्वपूर्ण तारीख बनते जा रहे हैं। देश के मध्यवर्गीय परिवारों में बच्चों के जन्मदिन मनाने की परंपरा बहुत पुरानी नहीं है, लेकिन दोस्तों ओर रिश्तेदारों के छोटे से समूह के लिए प्रीति-भोज के एक अवसर के रूप में हमने इसे स्वीकार कर लिया है। लेकिन किसी जाने-माने शख्स के जन्मदिन का कार्यक्रम पूरे समाज के लिए तैयार किया जाए, इसकी परंपरा एक दशक से ज्यादा पुरानी नहीं है। यह उस परंपरा से अलग किस्म का एक कर्मकांड है, जब नेताओं की जयंतियां मनाई जाती थीं, उनके नाम पर दिवस घोषित किए जाते थे- बाल दिवस, शिक्षक दिवस, किसान दिवस वगैरह। बेशक, दिवस या जयंती मनाने की परंपरा में भी महिमा मंडन ही एक बड़ी थीम होती थी और मकसद होता था उस महिमा के सहारे लोगों को बड़े पैमाने पर जोड़ना। लेकिन ‘हैप्पी बर्थ डे’ वाली शैली में केक काटकर नेताओं का जन्मदिन मनाने की परंपरा एकदम नई है। यह परंपरा इंदिरा गांधी, चौधरी चरण सिंह, वीपी सिंह या चंद्रशेखर के बाद के दौर की उपज है।

अभी कुछ ही दिन पहले उत्तर प्रदेश के रामपुर में समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव का जन्मदिन समारोहपूर्वक मनाया गया। बिहार में लालू यादव भी पिछले कई साल से अपना जन्मदिन इसी तरह मना रहे हैं। वह जिस केक को काटते हैं, उस पर उनकी पार्टी का चुनाव चिन्ह ‘लालटेन’ भी सजा होता है। डेढ़ साल पहले तमिलनाडु की तत्कालीन मुख्यमंत्री जे जयललिता जब 66 साल की हुईं, तो प्रदेश के 66 मंदिरों में हवन का आयोजन किया गया। इतना ही नहीं, 6,600 लोगों को अन्नदान दिया गया। यह बात अलग है कि कुछ ही समय बाद जयललिता को मुख्यमंत्री पद से हाथ धोना पड़ा। उसके कुछ दिनों पहले ही उनके चिर प्रतिद्वंद्वी के करुणानिधि ने भी अपना 90वां जन्मदिन समारोहपूर्वक मनाया था। यह बात अलग है कि तब उनकी पार्टी सत्ता में नहीं थी, इसलिए उनके आयोजन में वह जोश नहीं दिखा, जो जयललिता के आयोजनों में था। पिछले 17 सितंबर को जब साबरमती के तट पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीनी प्रधानमंत्री के स्वागत में भव्य समारोह का आयोजन किया था, तो इसे नरेंद्र मोदी के जन्मदिवस समारोह के रूप में ही पेश किया गया था। और इसके कुछ ही हफ्तों बाद जब भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी का जन्मदिन आया, तो नरेंद्र मोदी ने पहले तो इसे ट्विटर इवेंट बना दिया और बाद में वह जन्मदिन की बधाई देने खुद आडवाणी के घर गए।

हालांकि यह कहने वाले भी मिल जाएंगे कि जन्मदिन मनाना न उस समाजवादी परंपरा का हिस्सा है, जिससे मुलायम सिंह यादव और लालू यादव आते हैं और न ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की उस परंपरा में ही यह आयोजन होता है, जिससे नरेंद्र मोदी और लालकृष्ण आडवाणी आते हैं। इसके अलावा भारतीय परंपरा में राजवंशों में भी राजकुमारों के जन्म पर दुंदभी, मंगलगान, मंत्रोचार एवं बधाई गान जैसी चीजें चलती रही हैं, पर जन्मदिन मनाने का ऐसा चलन शायद नहीं रहा है। कई राजा जिन शुभ दिनों पर गरीबों के बीच दान आदि करते थे, उनमें उनके परिवारी जनों के जन्मदिन भी शामिल होते थे, लेकिन समारोह के रूप में जन्मदिन मनाने के आख्यान बहुत ज्यादा नहीं हैं। यह ठीक है कि जन्मदिन मनाने का चलन न तो पुरानी भारतीय परंपराओं में है, और न ही राजनीति की विचारधाराओं का हिस्सा ही, लेकिन सत्ता की राजनीति खुद अपनी परंपराएं, अपने कर्मकांड गढ़ती है और उत्तर भारत में इन दिनों शायद यही हो रहा है। इन जन्मदिन समारोहों को अधिक से अधिक भव्यता प्रदान करना, राजनीतिक रूप देना, सामंती और राजत्व के प्रतीकों से जोड़ना भारतीय जनतांत्रिक राजनीति में एक नए अंतर्विरोध को दिखाता है। अपने जन्मदिन पर गरीबों को दान देने और उनके कल्याण के लिए योजनाएं शुरू करने की प्रवृत्ति भी राजशाही की ही याद दिलाती है। वैसे भी भारतीय लोकतंत्र में सामंती प्रतीकों का तर्क कोई नया नहीं है, और हमारा लोकतंत्र इन सामंती प्रतीकों के साथ ही निचले तबके की अभिलाषाओं के साथ जुड़ता है। साथ ही, इसने राजनीति करने वालों का एक संभ्रांत वर्ग भी पैदा किया है, जन्मदिन समारोहों में हमें यह संभ्रांत तत्व ही दिखाई देता है।

बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती के जन्मदिन समारोह अक्सर खबरों में सबसे ज्यादा रहते हैं। हालांकि इसे परंपरा के तर्क से नहीं समझा जा सकता। उत्तर भारत में कांशीराम ने दलितों के लिए जिस नई राजनीति का आगाज किया था, दलितों को उच्च वर्गों की तरह नई संस्कृति और नया गौरव देने का प्रयास उसका एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। दलित शख्सियतों की मूर्तियों की स्थापना से लेकर मायावती का जन्मदिन समारोह तक इसी रणनीति का हिस्सा बने। दलित वर्ग में यह तर्क आम है कि क्या बड़े दलों के नेता ही अपना जन्मदिन मना सकते हैं, दलितों की नेता नहीं मना सकतीं? शुरू के दिनों में यह जन्मदिन भले ही अपनी भव्यता, और पार्टी के चंदा अभियान के कारण विवादास्पद रहा हो, लेकिन अब इसे संगठन निर्माण के अवसर के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा है। अब इसे जन-कल्याणकारी दिवस का नाम दिया गया है।

लोकतंत्र की राजनीति को अगर उसके रेडिकल अर्थ में देखें, तो जन्मदिन मनाने के ऐसे प्रयास हमें खलनायक की तरह ही दिखाई देते हैं। मीडिया में ऐसे समारोहों को इसी रूप में पेश किया जाता है। ऐसे समारोह सामाजिक परिवर्तन की किसी मुहिम का हिस्सा नहीं हो सकते। यह जरूर है कि कुछ हद तक इनका इस्तेमाल कार्यकर्ताओं को लामबंद करने और उनकी निष्ठा को परखने के अवसर के रूप में किया जाता है, लेकिन ऐसे अवसरों पर चापलूसी जैसी प्रवृत्तियां ही ज्यादा दिखाई देती हैं। धन का दुरुपयोग भी एक बड़ा मुद्दा है। यह भी स्पष्ट नहीं है कि नेताओं को अपना जनाधार मजबूत करने या उसका विस्तार करने में इससे कोई मदद मिलती है। लेकिन इन सबके साथ ही नेताओं के जन्मदिन समारोह भारतीय राजनीति की एक हकीकत बन चुके हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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