अपनी मां से सीख सकते हैं राहुल
जयराम रमेश तब कांग्रेस में इतने बड़े नेता नहीं थे। वह एआईसीसी में आर्थिक प्रकोष्ठ के सचिव हुआ करते थे। सोनिया गांधी को कांग्रेस का अध्यक्ष बने दो-ढाई वर्ष ही हुए थे। कांग्रेस तब तक लगातार तीन...
जयराम रमेश तब कांग्रेस में इतने बड़े नेता नहीं थे। वह एआईसीसी में आर्थिक प्रकोष्ठ के सचिव हुआ करते थे। सोनिया गांधी को कांग्रेस का अध्यक्ष बने दो-ढाई वर्ष ही हुए थे। कांग्रेस तब तक लगातार तीन लोकसभा चुनाव हार चुकी थी, जिनमें से एक तो सोनिया गांधी के नेतृत्व में 1999 में लड़ा गया था। कांग्रेस की वह हार उसके इतिहास की तब तक की सबसे बुरी हार थी। कांग्रेस को केवल 112 सीटें मिली थीं और सोनिया गांधी की नेतृत्व-क्षमता को लेकर तमाम संदेह व्यक्त किए जा रहे थे। कांग्रेस से अलग होकर शरद पवार राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बना चुके थे। कांग्रेस में निराशा का माहौल वैसा ही था, जैसा आजकल है। तब जयराम रमेश ने यह कहकर सनसनी फैला दी थी कि सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस अगले पचास साल तक सत्ता में नहीं आ सकती। एक विदेशी पत्रिका (एशिया वीक, मई 2000) को दिए इंटरव्यू में जयराम रमेश ने कहा, दो वर्ष पहले सोनिया गांधी के कांग्रेस की बागडोर संभालने के बाद उनसे जो उम्मीदें लगाई गई थीं, वे ठंडी हो गई हैं। जो लोग पहले उन्हें निर्वाण का टिकट मानते थे, अब नरक का टिकट मान रहे हैं। पर जयराम रमेश की यह धारणा कुछ ही समय में गलत साबित हो गई। सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने न केवल अगला चुनाव (2004 में) जीता, बल्कि उसके बाद 2009 में फिर से सरकार बनाई, वह भी पहले से ज्यादा सीटों पर जीत हासिल करके।
सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस को अब तक की सबसे बड़ी शर्मनाक हार देखनी पड़ी है। इस हार के लिए कुछ लोग राहुल गांधी के सलाहकारों को कोस रहे हैं, तो कुछ खुद उन्हीं को। चुनाव उनके ही नेतृत्व में लड़ा गया था, इन सबके बावजूद राहुल गांधी को लेकर इस समय यदि उस तरह की तीखी प्रतिक्रिया नहीं आ रही है, और अब भी कांग्रेस का भविष्य किसी को अंधकारमय नहीं लग रहा है, तो उसका एक कारण यह भी है कि कांग्रेस दस वर्ष सत्ता में रहकर बाहर हुई है और सोनिया गांधी पार्टी का नेतृत्व करने के लिए उपलब्ध हैं। हार की वजहें सबको पता हैं। भ्रष्टाचार, घपले-घोटाले, मंत्रियों का अहंकार और प्रधानमंत्री की चुप्पी, लुंज-पुंज सरकार की छवि के अलावा भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के सामने राहुल गांधी का न टिक पाना। अंदर ही अंदर खदबदा रहे रोष के बाहर न आने का दूसरा कारण विकल्पहीनता है। गांधी परिवार कांग्रेस की जरूरत है और यह सभी मानते हैं कि बिना इसके कांग्रेस पार्टी का चल पाना नामुमकिन है। यह बात भी सबको पता है कि वह दिन ज्यादा दूर नहीं है, जब सोनिया गांधी खुद को पीछे कर राहुल गांधी को पार्टी की कमान पूरी तरह सौंप देंगी। मगर यह भी तय है कि राहुल यदि गलतियों से सीखने और खुद की कार्य-प्रणाली में बदलाव लाने के इच्छुक नहीं दिखे, तो इस आंतरिक असंतोष को सतह पर आने में भी ज्यादा समय नहीं लगेगा।
कांग्रेस में आम शिकायत है कि राहुल गांधी अपने अलावा किसी की सुनना पसंद नहीं करते। चाहे कोई कितना ही अनुभवी क्यों न हो? पार्टी का हर बड़ा नेता उन्हें धंधेबाज नजर आता है और कार्यकर्ताओं से मिलना उन्हें समय की बरबादी लगता है। उनके आसपास या तो मिलिंद देवड़ा, नवीन जिंदल और जितेंद्र सिंह जैसे अभिजात्य वर्ग से आने वाले युवा नेता दिखते हैं या फिर किसी अन्य दल से कांग्रेस में आए हुए ऐसे लोग, जिनका कुछ भी दांव पर नहीं लगा है। पार्टी के पुराने तंत्र और नेताओं का अपना एक महत्व है। मधुसूदन मिस्त्री, अहमद पटेल का विकल्प नहीं हो सकते। अहमद पटेल को अहमद पटेल या जनार्दन द्विवेदी को जनार्दन द्विवेदी बनने में 25-30 साल लगे हैं। यह सही है कि राहुल गांधी कांग्रेस की कार्य-प्रणाली में आमूल-चूल बदलाव लाना चाहते हैं। वह मौजूदा कार्य-संस्कृति से खिन्न हैं। लेकिन इसे बदलने के लिए जिस तरह की दूरदर्शिता, जुनून, गंभीरता और व्यावहारिक कार्य-योजना चाहिए, वह कहीं नहीं दिखती।
हर राजनीतिक दल की अपनी एक कार्य-संस्कृति होती है। इसके पीछे उसका इतिहास, पृष्ठभूमि और एक सोच काम करती है। खुद राहुल गांधी कह चुके हैं कि कांग्रेस इस देश की सोच में है और उसे लोगों के दिल से नहीं निकाला जा सकता। जितना कठिन हिन्दुस्तानियों के दिल से इस सोच को मिटाना है, उतना ही कठिन कांग्रेसी कल्चर से कांग्रेसियों को दूर करना भी है। यह काम आनन-फानन में या रातोंरात नहीं हो सकता। हकीकत यह है कि कार्यकर्ताओं को, चाहे वे कांग्रेस के हों या किसी और दल के, अपने नेताओं की परंपरागत कार्यशैली ही पसंद है, जिसमें नेता धैर्य से उनकी बात सुनता है। उनकी समस्या का हल निकालने की कोशिश करता है और सुख-दुख में उनके साथ दिखने की कोशिश करता है। कार्यकर्ता व प्रदेश के नेता तो दूर, कांग्रेस के बड़े नेताओं की यह आम शिकायत है कि उनके प्रति राहुल का व्यवहार बहुत उपेक्षापूर्ण होता है। सांसद बनने के पहले राहुल गांधी का ज्यादातर समय अमेरिका और ब्रिटेन में बीता है। उनके दिल और दिमाग पर अमेरिका व ब्रिटेन में विकसित लोकतांत्रिक व्यवस्था की गहरी छाप है। भारत में और अपनी पार्टी में वह वही प्रयोग करना चाहते हैं, जो उन्होंने इन पश्चिमी देशों में देखे हैं। इसमें बुराई भी नहीं है। लेकिन भारत और अमेरिका की राजनीतिक कार्य-संस्कृति व सामाजिक पृष्ठभूमि में जमीन-आसमान का अंतर है।
इस मामले में राहुल अपनी मां सोनिया गांधी से एकदम अलग हैं। तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद सोनिया गांधी को कांग्रेसियों या कांग्रेस कल्चर को समझने में दो वर्ष भी नहीं लगे। जब वह अध्यक्ष बनी थीं, तब कांग्रेसी सत्ता में आने के लिए छटपटा रहे थे। जयराम रमेश के बयान से इसका अंदाज लगाया जा सकता है। जनता दरबार, हर छोटे-बड़े मसले पर कार्य-समिति की बैठक, मुख्यमंत्री सम्मेलन, मीडिया वालों से व्यक्तिगत संवाद और प्रदेश के नेताओं से लगातार संपर्क के जरिये पार्टी की नब्ज पर हमेशा उनकी उंगलियां जमी रहीं। न उन्होंने धंधेबाज नेताओं को एहसास होने दिया कि वह उन्हें पसंद नहीं करतीं और न ही पार्टी के वफादारों को कभी शिकायत का मौका दिया। किसी भी जटिल विषय पर निर्णय से पहले वह अधिक से अधिक लोगों से राय-मशविरा करतीं और फैसले के बाद पार्टी को उसे मानने के लिए मजबूर करतीं। हालत यह है कि एक महीना गुजर जाने के बाद भी राहुल गांधी ने पार्टी के हारे हुए उम्मीदवारों से मिलना तो दूर, उन्हें फोन करके सांत्वना देने की जरूरत भी नहीं समङी। यह काम भी सोनिया गांधी को ही करना पड़ रहा है। कांग्रेसियों की असली चिंता यही है और इसका समाधान केवल राहुल गांधी के पास है।