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बिचौलिया राज के खिलाफ

पिछले दिनों एक पुराने साथी मिलने आए। हम दोनों कभी साथ पढ़ते थे। कद-काठी में वह मुझसे काफी बलिष्ठ थे और जमकर कसरत किया करते। जब उनका फोन आया कि मैं मिलना चाहता हूं, तो बेहद खुशी हुई। मन अतीत की गलियों...

बिचौलिया राज के खिलाफ
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 05 Jul 2014 09:19 PM
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पिछले दिनों एक पुराने साथी मिलने आए। हम दोनों कभी साथ पढ़ते थे। कद-काठी में वह मुझसे काफी बलिष्ठ थे और जमकर कसरत किया करते। जब उनका फोन आया कि मैं मिलना चाहता हूं, तो बेहद खुशी हुई। मन अतीत की गलियों में भटकने लगा। हम में से हरेक के मन में बचपन के बेहतरीन दिनों को फिर से पा लेने की ललक अक्सर बलवान हो उठती है। मैं इसी का शिकार हो चला था।

उन्हें देखकर धक्का लगा। टूटे दांत, उड़ चले सफेद बाल, दोहरी होती काया और समूचे अस्तित्व में दीनता का वास। मन में आहत सवाल उभरा कि कहीं ये बीमार तो नहीं? उनके भतीजे साथ में थे। पिछले ही साल उस नौजवान ने कृषि में रिसर्च पूरी की है और अब एक साफ-सुथरी नौकरी के लिए धक्के खा रहा है। कद-काठी उसकी भी चाचा की तरह थी, पर ढलान अभी से दीख रही थी। बाल पक चले थे। चेहरे से नौजवानी का नूर गायब था और हाव-भाव में उस आत्मविश्वास की कमी थी, जो नौजवानों में पाई जाती है। क्यों? इस सवाल के जवाब के लिए बहुत इंतजार नहीं करना पड़ा।

मैंने नौजवान से पूछा कि तुम्हारे खानदान में तो हमेशा से काश्तकारी होती आई है, तुमने कृषि में आला दर्जे की तालीम हासिल कर ली है। क्यों नहीं खेती में मन लगाते हो? जो सीखा है, उसे अपने लिए इस्तेमाल करो और गांव वालों को भी सिखाओ। उसका जवाब था कि खेती अब फायदे का सौदा नहीं रह गई है। मेरे सहपाठी की शक्ल-सूरत इस कड़वे सच की गवाह थी। उन्हें लगता है कि गांव में रहकर, गलती की। न धन कमा सके और न ही बच्चों को अच्छी तरह से पढ़ा-लिखा सके। उनके चेहरे पर पश्चाताप की स्याही सुर्ख हो चली थी। यह दुखद है कि देश के करोड़ों किसान ऐसा ही सोचते हैं।

यही वजह है कि हर रोज दो हजार से ज्यादा लोग खेती-किसानी से तौबा कर रहे हैं। रोजगार के लिए वे नगरों और महानगरों की ओर पलायन करते हैं। अपनी जड़ों से कटे और हालात के आगे मजबूर इन लोगों के चलते भारतीय समाज में एक नया वर्ग पैदा हो रहा है। ये ऐसे विस्थापित हैं, जिन्हें कहीं शरण हासिल नहीं। इनसे अच्छे तो वे राजनयिक विशेषाधिकार प्राप्त लोग हैं, जिन्हें शरणार्थियों का दर्जा दिया जाता है। सरकारी सहूलियतें उन पर बरसती हैं और मीडिया उनको खास तवज्जो देता है। इन किसानों को हम ग्राम देवता कहते आए हैं और उनके त्याग-परिश्रम पर कविताएं रची जाती रही हैं। यह समूची कौम के लिए दुर्भाग्य की बात है कि जिन लोगों ने पांच हजार साल तक इस देश को पाला-पोसा, वे खुद लाचार साबित हो रहे हैं।

मित्र से बातचीत के दौरान बड़ी भयानक तस्वीर सामने आई। गांवों में कुंए सूख गए हैं। सदानीरा नदियां अब सिंचाई के लिए पर्याप्त जल नहीं मुहैया करातीं, उलटे बारिश के दिनों में तबाही का तांडव जरूर मचा देती हैं। आज भी किसान सवेरे सबसे पहले आसमान की ओर देखता है। मगर वहां से वर्षा-जल नहीं हासिल होता, तो उसके खेत सूख जाते हैं। ज्यादा पानी बरसता है, तो दूसरी तरह की तबाही मच जाती है। तकनीकी तरक्की के इस दौर में किसानों के लिए प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के सरंजाम नहीं रचे गए। हमारे नेताओं की अनदेखी से आजादी के बाद की सरकारें तो अंग्रेजों और मुगलों से भी गई-गुजरी साबित हुईं। वे बाहर से आए थे, पर उन्होंने भूमि-सुधार के तमाम कायदे-कानून बनाए। देसी हुक्मरानों ने इन 67 स्वतंत्र वर्षों में ग्रामीण जनता को पहले के मुकाबले कहीं अधिक लाचार बना दिया है।

सरकारी बैंक अपनी सालाना रपटों में सजा-संवारकर आंकड़े पेश करते हैं कि हमने इतने अरब रुपये किसानों को बतौर कर्ज दिए। साथ में रुदन भी करते हैं कि ये नादेहन लोग ऋण की वापसी नहीं कर पाते। इसे कहते हैं आधी हकीकत, आधा फसाना! शोध बताते हैं कि अधिकांश छोटे कृषक बैंकों की बजाय साहूकारों से कर्ज लेते हैं और फिर उनके बंधुआ बनकर रह जाते हैं। कम होती उपज, घटता रकबा, प्रतिकूल हालात और कभी न खत्म होने वाली तंगहाली की वजह से आए दिन उन्हें आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ता है। पिछले तीन साल में 40 हजार से अधिक किसानों ने बदहाली से तंग आकर मौत को गले लगा लिया। यह जानना दर्दनाक है कि हुक्मरानों की अनदेखी से उपजी अव्यवस्था ने कृषकों की जितनी जानें हिन्दुस्तान में ली हैं, उतनी दहशतगर्दो ने नहीं लीं।

दुर्भाग्य के इसी सिलसिले की एक और कड़ी से आपको अवगत कराता हूं। पिछले दिनों ‘हिन्दुस्तान’ ने उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड के तमाम भागों में सर्वेक्षण के दौरान पाया कि काश्तकारों को उनकी उपज का सही मूल्य न मिलने की वजह बिचौलियों का लंबा-चौड़ा मकड़जाल है। इन धरती पुत्रों को अपनी उपज का आधा-तीहा मूल्य हासिल करने के लिए तमाम चैनल पार करने पड़ते हैं। सरकारी खरीद तंत्र इनकी सहायता करने में नाकाम साबित हो गया है।

इन बिचौलियों की ही कारस्तानी है कि महंगाई लगातार बढ़ती जा रही है। मई के दूसरे पखवाड़े में एसोचैम ने अपने एक अध्ययन में कहा था कि भारत का कृषि क्षेत्र बिचौलियों के चंगुल में बुरी तरह से फंसा हुआ है। ऐसोचैम के मुताबिक, जरूरी सब्जियों के थोक और फुटकर मूल्य के बीच का फर्क साल 2013-14 में 49 प्रतिशत से भी अधिक का हो गया, जिससे इनकी कीमतें बेकाबू हो रही हैं। अमूमन यह अंतर 30 फीसदी के आस-पास रहता है।

27 जून को दिल्ली में प्याज के थोक दाम 12.75 रुपये थे, जबकि रिटेल में वह 24 रुपये किलो बिक रहा था। पिछले साल भी प्याज के दाम आसमान पर थे, जिसके कारण मनमोहन सिंह सरकार को उसके निर्यात पर रोक लगानी पड़ी थी। देश के कुल प्याज उत्पादन का करीब एक तिहाई सिर्फ महाराष्ट्र में होता है और पिछले साल वहां फसल खराब हो गई थी, जिससे दाम काफी बढ़े थे। इस बार कमजोर मानसून के मद्देनजर सरकार 22 जरूरी चीजों के दाम को स्थिर करने के प्रयास कर रही है, मगर यही वक्त सटोरियों और बिचौलियों के चांदी काटने का भी है। मतलब साफ है। किसानों को उनकी मेहनत का प्रतिफल नहीं मिल रहा और आम उपभोक्ता को जरूरत से ज्यादा महंगे कृषि उत्पाद खरीदने पड़ रहे हैं।

अफसोस! इतना बड़ा मुद्दा राजनीतिक दलों की दलदल में फंसकर रह गया है। जिन सूबों में केंद्र के विपक्षी सत्तानशीं हैं, वहां के मुख्यमंत्री केंद्र पर आरोपों की बौछार कर मुक्त हो जाते हैं। नई दिल्ली के सत्तानायक पलटकर उन पर तोहमतों की कीचड़ उछाल देते हैं। नतीजा? हर रोज दो हजार लोगों की किसानी से तौबा और तीन साल में 40 हजार लोगों की आत्महत्या। ऊपर से उपभोक्ता हाहाकार कर रहे हैं।

इस प्रवृत्ति को रोका जाना चाहिए, पर कैसे? क्या हमारे राजनेता इस मुद्दे पर एका नहीं स्थापित कर सकते? आखिर इन्हीं खेतों से उपजे अन्न से उनका और उनके परिवार का पेट भरता है। इसके उत्पादन के लिए दिन-रात हाड़तोड़ मेहनत करने वालों और महंगाई से आजिज उपभोक्ताओं  के प्रति इतनी जवाबदेही तो उनकी भी बनती है।

shashi.shekhar@livehindustan.com

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