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जैसे दिल्ली के दिन बहुरे

लोकतांत्रिक देशों की राजधानियों में रहने वाले लोगों से यह उम्मीद नहीं की जाती। वे सुबह-सवेरे तैयार होकर काम के लिए निकलते हैं, ट्रैफिक जाम से जूझते हुए जैसे-तैसे मंजिल तक पहुंचते हैं। और शाम को जब वे...

जैसे दिल्ली के दिन बहुरे
लाइव हिन्दुस्तान टीमThu, 12 Feb 2015 12:25 AM
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लोकतांत्रिक देशों की राजधानियों में रहने वाले लोगों से यह उम्मीद नहीं की जाती। वे सुबह-सवेरे तैयार होकर काम के लिए निकलते हैं, ट्रैफिक जाम से जूझते हुए जैसे-तैसे मंजिल तक पहुंचते हैं। और शाम को जब वे थककर घर लौटते हैं, तो अंधेरा हो चुका होता है। इस पूरी दिनचर्या में सरकार, प्रशासन वगैरह को कोसने के लिए तो बहुत कुछ होता है, लेकिन किसी सामाजिक या सामूहिक चेतना के बनने और खिलने की गुंजाइश बहुत कम ही बचती है। यहां तक कि हर मौके-बेमौके चौराहों पर मोमबत्ती जलाने वालों को भी राजनीतिक आंदोलन, धरने-प्रदर्शन भी बेवजह के सिरदर्द लगते हैं। इनकी वजह से किसी का कारोबार ठप होता है, कोई समय पर दफ्तर नहीं पहुंच पाता और किसी गरीब की दिहाड़ी मारी जाती है। दुनिया भर में यही होता है और यह कहा भी जाता है कि राजधानी के लोगों से आप किसी क्रांति की उम्मीद नहीं कर सकते। इसीलिए दिल्ली में पिछले कुछ साल से जो हो रहा है, वह हमें बार-बार चौंकाता है।

पहली बार दिल्ली में ऐसी सक्रियता तब दिखी थी, जब विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने मंडल आयोग की सिफरिशों को स्वीकार किया था। लगभग पूरी दिल्ली कई दिनों तक ठप रही थी, राजनीतिक आंदोलनों के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ने वाले इसमें जी-जान से शामिल थे। सरकारी नौकरियों का एक हिस्सा पिछड़ी जातियों के हवाले हो जाने से सड़कों पर वे लोग भी उतरे थे, जो वास्तव में सरकारी क्षेत्र की भूमिका को लगातार कम करने और निजी क्षेत्र की भूमिका को बढ़ाने के हिमायती थे। यह आंदोलन सिर्फ प्रतीकात्मक भी नहीं था, क्योंकि उस दौरान आत्मदाह का जो दौर चला, उसने पूरे देश को हिला दिया था। उसके बाद कई बरस तक दिल्ली शांत रही, तो उस समय को जातिवादी चेतना का उग्र दौर मानकर भुला दिया गया। अन्ना हजारे जब दिल्ली के जंतर-मंतर पर लोकपाल की मांग के साथ पहुंचे, तो राजधानी के यही लोग फिर सक्रिय हो गए। रोज-रोज उजागर हो रहे घोटालों के चलते मेट्रो ट्रेन में सुबह-शाम सरकार को कोसने वालों को अचानक ही एक बड़ा मंच मिल गया। यह दबाव इतना बड़ा था कि सरकार को झुकना पड़ा। एक बार नहीं, कई बार। लोग इसी तरह तब भी बाहर आए, जब निर्भया से बलात्कार की बर्बर वारदात हुई। इस बार तो वहां अरविंद केजरीवाल या अन्ना हजारे जैसा कोई नेतृत्व भी नहीं था। केंद्र सरकार को फिर झुकना पड़ा, और बलात्कार के खिलाफ कड़े कानून ही नहीं बने, मृत्युदंड जैसी सजा का प्रावधान भी किया गया। इसी सक्रियता ने आगे चलकर न सिर्फ एक नए राजनीतिक दल को जन्म दिया, बल्कि उसे प्रचंड बहुमत तक पहुंचा दिया।

दिल्ली के लोगों की इस राजनीतिक सक्रियता को क्या कहें? यह भ्रम सड़क पर उतरने वाले इन लोगों को कभी नहीं रहा कि वे कोई बड़ी क्रांति करने जा रहे हैं। कुछ सुविधाओं के छिनने का गम, नई सुविधाओं और अनुकूल कानूनों की मांग, बस। इस सक्रियता की सोच किसी दूरगामी मंजिल की ओर नहीं जाती। क्रांति का राजनीतिक दर्शन अपनाने वालों को यही चीज अखरती है और इसीलिए वे या तो इसे आमूल-चूल बलदाव की शुरुआत सिद्ध करने पर तुले हैं या फिर कुछ इसकी वर्ग चेतना को टटोलते हुए इसे प्रतिक्रांति साबित करने के तर्क तलाश रहे हैं।

दरअसल, पिछले कुछ समय से दिल्ली में जो बड़े राजनीतिक आंदोलन दिख रहे हैं, उन्हें क्रांति के परंपरागत सिद्धांतों से परिभाषित भी नहीं किया जा सकता। सड़कों पर उतरने वाले ये लोग सिर्फ अपने अधिकार की बात करते हैं, उसके आगे कुछ और नहीं। समस्याओं को देखने का उनका नजरिया उथला और सरलीकृत हो सकता है, लेकिन अपने अनुभव से उन्होंने लोकतंत्र की राजनीति के उस मर्म को जान लिया है, जिसे साम्यवादी और समाजवादी सोच वाले अभी तक नहीं समझ सके। उन्होंने यह सीख लिया है कि आरक्षण, किसानों की कर्ज माफी और रोजगार की गारंटी देने वाली व्यवस्था में दबाव बनाकर अपने लिए सुविधाएं हासिल कर लेना ही सबसे बड़ी समझदारी है। लेकिन महज अपने सामूहिक स्वार्थ के लिए घरों से निकले ये लोग इस बीच जो नया रच रहे हैं, वह भले ही मामूली हो पर किसी तरह से कम नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि वे जाति, धर्म और वर्गभेद को भूलकर साथ आ रहे हैं। यह ठीक है कि इसमें जातिवाद, सांप्रदायिकता वगैरह के खत्म होने की गारंटी नहीं है, लेकिन इनके खत्म होने की कोई गुंजाइश भी तभी बनेगी, जब लोग साझा हितों के लिए साथ आएंगे। 

राजधानी से बाहर निकलकर अगर आप इसे बाकी देश के नजरिये से देखें, तो यह तस्वीर कुछ अलग ही नजर आएगी। दिल्ली के लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी में कई मुश्किले हैं, शायद ढेर सारी मुश्किलें। फिर भी राजधानी के लोग जिस जिंदगी को जीते हैं, वह देश के बहुत सारे हिस्सों की बड़ी आबादी के लिए एक सपना है। जब आप दिल्ली में रहते हैं, तो आपको लगता है कि यहां बिजली बहुत महंगी है, और अरविंद केजरीवाल ने इसी को मुद्दा बनाकर दिल्ली में आंदोलन तक खड़ा कर दिया था। लेकिन उसी दिल्ली की आनंद विहार सीमा के पार, जहां खुद अरविंद केजरीवाल का घर है, वहां बिजली कहीं ज्यादा महंगी है और निरंतर आती भी नहीं। वहां सर्दियों में भी छह से आठ घंटे का पॉवर कट आम बात है। सरिता विहार के एक पेट्रोल पंप पर लगा एक बोर्ड दिल्ली को हकीकत को ज्यादा अच्छे ढंग से बताता है, जिस पर लिखा है- यहां नोएडा और फरीदाबाद से सस्ता पेट्रोल मिलता है। खराब सड़कें क्या होती हैं, यह दिल्ली वालों को तभी पता पड़ता है, जब वे बदरपुर बॉर्डर पार करते हैं। दिल्ली में पानी की समस्या है, कुछ जगह गंदे पानी की भी सप्लाई होती है, लेकिन फिर भी यह गाजियाबाद की उन कुछ वैध-अवैध कॉलोनियों से बहुत बेहतर है, जहां कई बार पांच-पांच दिनों तक पानी की सप्लाई नहीं होती। अभी हम दिल्ली की तुलना आस-पड़ोस के उन शहरों से कर रहे हैं, जो ठीक-ठाक हालत में हैं, देश के उन इलाकों से नहीं, जो वास्तव में पिछड़े हुए और बदहाल हैं।

अब अगर दिल्ली की नई सरकार यहां के लोगों को आधी कीमत पर बिजली, मुफ्त पानी और मुफ्त वाई-फाई जैसी सुविधाएं देने का अपना चुनावी वादा पूरा करेगी, तो यह अंतर और बढ़ेगा। हालांकि इसमें दिल्ली में बनने वाली नई सरकार का कोई दोष नहीं, लेकिन बाकी देश के लोगों का सुविधाओं और समृद्धि के इस द्वीप की ओर आकर्षण तो बढ़ेगा ही। भारी उम्मीदें बांधकर दिल्ली आने वालों की संख्या बढ़ेगी, इसी अनुपात में शायद दिल्ली की समस्याएं भी बढ़ सकती हैं। काश, जैसे दिल्ली के दिन बहुरे, वैसे बाकी देश के दिन भी बहुरें।

 

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