तुम्हारा यहां से जाना
किसी का शहर छोड़कर जाना कैसा है? हमेशा के लिए। कभी लौटकर न आने के लिए। कई दोस्त हैं, जो अब यहां नहीं हैं। सब बारी-बारी अपने सपनों को समेटकर यहां से चल दिए। जिन बक्सों में वे इन्हें भरकर लाए थे, उनमें...
किसी का शहर छोड़कर जाना कैसा है? हमेशा के लिए। कभी लौटकर न आने के लिए। कई दोस्त हैं, जो अब यहां नहीं हैं। सब बारी-बारी अपने सपनों को समेटकर यहां से चल दिए। जिन बक्सों में वे इन्हें भरकर लाए थे, उनमें क्या ले गए, पता नहीं। उन्होंने किसी को भी नहीं बताया। कहते हैं कि शहर सपनों के सच होने की जगह है, पर जिनके सपने हकीकत में नहीं बदलते, वे कभी लौटकर नहीं आते। लौटकर आएं भी कैसे? जिन जगहों, लोगों, वादों, इरादों और शरारतों में वे जिंदा रहे होंगे, उनकी टीस कैसे मिटती होगी?..पता नहीं यह कैसा भाव है? जितने भी दिल के पास हैं, वे सब एक-एक करके यहां की रिहाइश को छोड़ खुद को समेट रहे हैं। यह शायद हमारी उम्र का बढ़ता दबाव है, जो यहां से जाने को मजबूर कर रहा है। हम वह नहीं हो पाए, जो होने यहां आए थे। जितने भी, जैसे भी संबंध यहां बने, उन्हें ऐसे ही रहने देने की कोशिश होगी।
मित्र, तुम अब जिंदगी को नए सिरे से बुनने को होगे। पहले जैसा कुछ भी नहीं रहेगा। दिल्ली में कमरा रखे रहने का कोई मतलब नहीं रहा। उस शाम जब तुम ट्रेन में बैठोगे, तो वापस आने के लिए नहीं बैठोगे। न कभी चाहकर उन जगहों पर वैसे मौजूद रह सकोगे। मेरे लिए भी यह शहर कुछ-कुछ बदल रहा होगा। अब कोई बहाना नहीं रहेगा परमानंद कॉलोनी जाने का। कभी जीटीबी मेट्रो स्टेशन उतरना नहीं होगा। एक दिन आएगा, जब चौहान बुक डिपो वाली गली को भी भूल जाऊंगा।