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हिंसा का कुचक्र टूटे तो कैसे

इस सप्ताह छत्तीसगढ़ एक घिनौनी सालगिरह का साक्षी बना और माओवादी अतिवादियों ने इसके जरिए यह एहसास कराया कि इस समस्या के शांतिपूर्ण हल की मंजिल अभी कितनी दूर है। 13 जुलाई को माओवादियों ने दक्षिणी...

हिंसा का कुचक्र टूटे तो कैसे
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 17 Jul 2015 07:58 PM
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इस सप्ताह छत्तीसगढ़ एक घिनौनी सालगिरह का साक्षी बना और माओवादी अतिवादियों ने इसके जरिए यह एहसास कराया कि इस समस्या के शांतिपूर्ण हल की मंजिल अभी कितनी दूर है। 13 जुलाई को माओवादियों ने दक्षिणी छत्तीसगढ़ में चार सहायक आरक्षियों को अगवा कर लिया। सहायक आरक्षी कहने का आशय यह है कि ये चारों व्यक्ति राज्य प्रायोजित निगरानी समिति के सदस्य थे। दो दिनों बाद बीजापुर जिले के कुटरू के पास सड़क पर इनकी लाशें मिलीं। इनकी हत्या सलवा-जुड़ूम की स्थापना की दसवीं वर्षगांठ के नाम पर की गई। सलवा-जुड़ूम वही प्रतिघाती संगठन है, जिसे राज्य सरकार और उसके तंत्र ने माओवादियों के मुकाबले के लिए खड़ा किया था। दुखद यह है कि इसकी पूरी प्रक्रिया ने आदिवासियों को आदिवासियों में भिड़ा दिया।

दस साल पहले माओवादी अतिवादियों के अभयारण्यों, संसाधनों को नकारने के लिए दक्षिणी छत्तीसगढ़ में इस तरह की निगरानी समितियों में सदस्यों की भर्तियां की गई थीं। तब स्थानीय पुलिस और अर्द्ध-सैनिक बलों के साथ मिलकर इन लोगों ने अनेक घरों व अन्न भंडारों को तहस-नहस कर दिया था। अनेक निरीह पुरुष-स्त्री व बच्चे इनकी गोलियों के शिकार बने थे। बलात्कार और अंग-भंग करने की घटनाएं तो उन दिनों आम बात थीं। दमन और उत्पीड़न के मामले रोजमर्रा का हिस्सा हो गए थे और बड़े पैमाने पर लोगों को जबरन विस्थापित किया गया था। दरअसल, बंदूक के बल पर अपने आदेश का पालन कराने वाले माओवादियों के खिलाफ स्थानीय लोगों में व्याप्त असंतोष व गुस्से से फायदा उठाने के लिए जो काम शुरू किया गया था, वह खुद बर्बर बन गया।

हालांकि राज्य सरकार ने इन कदमों को औचित्यपूर्ण भी ठहराया। मैंने छत्तीसगढ़ सरकार के 2005 के एक दस्तावेज का जिक्र अपनी किताब रेड सन: ट्रेवल्स इन नक्सलाइट कंट्री  में भी किया है। वह दस्तावेज साफ कहता है कि '...नक्सलियों की समस्या को खत्म करने के लिए उन्हें मारना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि ज्यादा जरूरी है कि ग्रामीण स्तर पर जो उनकी व्यवस्था काम कर रही है, उसको तहस-नहस किया जाए।' उस ब्लूप्रिंट में आगे दर्ज था, 'हालांकि, कभी-कभी हालात के काबू से बाहर चले जाने के कारण कुछ अतिरेकपूर्ण कदम उठ जाते हैं और मासूम लोग उन कदमों के शिकार बन जाते हैं। लेकिन एक बड़े ऑपरेशन के व्यापक परिप्रेक्ष्य को दिमाग में रखते हुए शीर्ष के लोगों का शांत रहना भी जरूरी है...।'

उन्होंने ऐसा ही किया। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने साल 2011 में आदेश दिया कि सलवा-जुड़ूम को खत्म किया जाए। लेकिन इसके सदस्यों को भारत सरकार के कानून से मिले अधिकारों के तहत 'कोया कमांडर' के रूप में बतौर विशेष पुलिस अधिकारी बनाए रखा गया। इनमें से कई तो वयस्क भी नहीं थे। मैंने ऐसे कुछ किशोरों का इंटरव्यू भी किया है। छत्तीसगढ़ पुलिस बल में इनकी नियुक्तियों के लिए नियुक्ति संबंधी कायदों को तोड़ा-मरोड़ा भी गया। ये लोग गार्ड, गुप्तचर, मुखबिर और स्थानीय टोपीदार के तौर पर काम करते हैं। इन्हें राइफलें मुहैया कराई गई हैं।

माओवादी इन लोगों को अपने ही आदिवासी समुदाय का विश्वासघाती और गद्दार मानते हैं और दावा करते हैं कि आदिवासियों के अधिकारों व विकास के लिए वे संघर्ष कर रहे हैं। माओवादी इन लोगों को बड़ी निर्ममता के साथ अपना शिकार बनाते रहे हैं। और पिछले दस वर्षों से वे इन्हें मार रहे हैं। दो साल से कुछ ही अधिक समय पहले मई 2013 में माओवादियों ने कांग्रेस नेता महेंद्र कर्मा की हत्या कर दी थी। महेंद्र कर्मा सलवा-जुड़ूम की रणनीति बनाने में शामिल मुख्य लोगों में से एक थे। इस मई में कर्मा के बेटे छवींद्र ने अपने समुदाय के विकास के लिए 'विकास संघर्ष समिति' नाम से सलवा-जुड़ूम दो शुरू करने की घोषणा की है और अपने खिलाफ माओवादी खतरे को बढ़ा लिया है।

हकीकत यह है कि यह अभियान अपने मकसद में पूरी तरह नाकाम साबित हुआ है और भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस, दोनों के स्थानीय नेता इसके खिलाफ हैं। इस तरह की किसी भी कार्रवाई से खून-खराबे का चक्र नए सिरे से शुरू हो सकता है, जिसमें मासूम लोगों को ही अपनी जिंदगी से लेकर आजीविका तक ज्यादा बड़ी कीमत चुकानी पड़़ती है। विडंबना यह है कि दोनों ही पक्ष दमित व वंचित तबकों के प्रतिनिधित्व का दावा करते हैं और इनकी हिफाजत के लिए ही हथियार उठाने की बात करते हैं, लेकिन इन वंचित-दमित लोगों को इन दोनों से ही सबसे अधिक नुकसान उठाना पड़ता है। शांति और समृद्धि के नाम पर एक तरह की अमानवीयता की भूख दूसरी तरह की बर्बरता मिटाती है।

अपनी तमाम दिखावटी नैतिकता के बावजूद माओवादियों का रवैया छत्तीसगढ़ और देश के दूसरे इलाकों में निरंतर बर्बरतापूर्ण रहा है। वे उन गाडि़यों को भी उड़ाते रहे हैं, जिनमें निरीह लोग सफर करते हैं। जो लोग माओवादियों की बात नहीं मानते, या फिर जिन्हें वे अपना दुश्मन या विश्वासघाती मानते हैं, उनके खिलाफ माओवादी कंगारू कोर्ट आज भी लगाए जाते हैं। पुलिस वालों के शवों में विस्फोटक भरकर अन्य पुलिस वालों को उड़ाने के षड्यंत्र को भी वे गुरिल्ला युद्ध मानते हैं।  इस बात का ऐलान उन्होंने बाकायदा प्रेस-विज्ञप्ति के जरिये किया है। रेलवे ट्रैक भी माओवादी अतिवादियों का निशाना बनते रहे हैं। और वे इसके लिए यात्री गाड़ी व मालगाड़ी में भी कोई फर्क नहीं करते।

आप इसे लोकतांत्रिक हक और मानवाधिकारों के उल्लंघन से उपजा आक्रोश व बगावत कह सकते हैं, मगर मैं इसे बर्बरता ही कहूंगा। सलवा-जुड़ूम के जरिए और सलवा-जुड़ूम के खिलाफ; राज्य के लिए या राज्य के खिलाफ जारी हिंसा के इस कुचक्र को तोड़ा जाना चाहिए। मासूमों के नाम पर किए जाने वाले ऐसे अभियानों में निरीह लोगों का ही कत्ल होता है। शांति के लक्ष्य की प्रक्रिया तो शांति-वार्ता से शुरू होती है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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