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गुमराह नौजवानों को रोकना होगा

कम से कम एक दशक से युवा मुसलमानों के हिंसक कट्टरवाद की तरफ बढ़ते झुकाव का मुद्दा अकादमिक जगत के लोगों और विशेषज्ञों के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। हालांकि,  इस उग्रवादी प्रक्रिया में हस्तक्षेप...

गुमराह नौजवानों को रोकना होगा
लाइव हिन्दुस्तान टीमThu, 15 Jan 2015 08:57 PM
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कम से कम एक दशक से युवा मुसलमानों के हिंसक कट्टरवाद की तरफ बढ़ते झुकाव का मुद्दा अकादमिक जगत के लोगों और विशेषज्ञों के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। हालांकि,  इस उग्रवादी प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने या उग्रवाद को रोकने के तरीके को ढूंढ़ने का काम हम रोजाना कर रहे हैं,  लेकिन कभी-कभार ही यह मसला अंतरराष्ट्रीय मीडिया का ध्यान खींच पाता है,  जैसे बोस्टन मैराथन धमाके और पिछले हफ्ते शार्ली एबदो पत्रिका के दफ्तर में चली गोलियां और पेरिस के एक सुपर मार्केट में हुई आतंकी वारदात। इस तरह की घटनाएं मुस्लिम समुदाय को असहज स्थिति में ले आती हैं। यह मांग कि मुसलमान जवाबदेह बनें,  जिम्मेदारी उठाएं,  घटना की निंदा करें,  उसके विरोध में बोलें और यह साबित करें कि वे आपराधिक हिंसा में लिप्त नहीं हैं। यह सब बताता है कि इस्लाम को अपने आपको को दोषी ठहराना है। अधिकतर मामलों में लोग कुरान की आयतों का हवाला देते हुए यह बताने की कोशिश करते हैं कि मुसलमान हिंसक होते हैं या फिर अमनपसंद। ज्यादातर धर्मों की तरह यहां भी ऐसे ढेर सारे उदाहरण हैं,  जो इन दोनों तरह के दावों में से किसी के पक्ष में जा सकते हैं।

पिछले हफ्ते मेरे ट्विटर अकाउंट पर ऐसी कई टिप्पणियां आईं,  जिनमें ऐसी जुबानी जंग थी। इस्लामिक स्टेट के समर्थक अपने ट्वीट से पेरिस हमले को मजहबी तौर पर जायज बता रहे थे,  वहीं ज्यादातर मुसलमान कुरान की आयतों के साथ अमन को बढ़ावा देने और हत्या को गलत ठहराने की बात कर रहे थे। हकीकत यह है कि कट्टरवाद (और गैर-कट्टरवाद)  की तरफ झुकाव में मजहब के किरदार को काफी बढ़ा-चढ़ाकर आंका जाता है। लेकिन ऐसा कोई भी ठोस सबूत नहीं है,  जो इस दावे का समर्थन करे कि मजहब और विचारधारा हिंसक कट्टरता को उकसाते हैं। आतंकवाद पर अध्ययन करने वाले दुनिया के कुछ बड़े विद्वान भी इस बात से सहमत हैं कि कई दूसरे मुद्दे इसमें अपेक्षाकृत बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। कट्टरवाद की तरफ उग्रवाद के मामलों में भी अन्याय के खिलाफ गुस्सा,  नैतिक रूप से खुद को श्रेष्ठ मानना,  पहचान और प्रयोजन की भावना,  जोखिम उठाने का फैसला और खुद को नायक कहलाने की कवायद भी शामिल रहती है।

धर्म और विचारधारा ‘हम बनाम वे’  की मानसिकता को बढ़ाने का काम करते हैं और ये ‘दुश्मन’ के खिलाफ हिंसा को उचित ठहराते हैं,  लेकिन ये उग्रवाद के वाहक नहीं हैं। यदि हिंसक कट्टरता के प्रति झुकाव का एकमात्र कारण धार्मिक मान्यता है,  तो हमें यह मान लेना चाहिए कि वैकल्पिक धार्मिक व्याख्याएं लोगों को हिंसा के रास्ते से दूर ले जा सकती हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश हिंसक कट्टरता से जुड़े युवा लोगों को धार्मिक बहस के जरिये विमर्श से जोड़ने की कोशिश बेहद कम ही सफल हुई है। जहां बहुतायत में मुस्लिम विद्वान और मौलवी इस्लाम के सहिष्णु व शांतिपूर्ण रूप को बढ़ावा देते हैं,  वहीं उन्हें उन चंद शेखों से भी स्पर्धा करनी पड़ती है,  जो नफरत और हिंसा को बढ़ावा देते हैं। ऐसे लोग आसानी से इंटरनेट पर उपलब्ध हैं और कुछ के साथ वैसे असंतुष्ट युवा जुड़े हुए हैं,  जो अन्याय बोध से ग्रस्त हैं और जिनको लगता है कि इस्लाम को हिंसा की आलोचना नहीं करनी चाहिए और जरूरत पड़ने पर उसे अपनी प्रतिबद्धता साबित करने के लिए हथियार उठाना चाहिए।

वे इस तरह की तकरीरों से बेतरह प्रभावित होकर यह मान बैठते हैं कि इस्लाम की दूसरी व्याख्या पूरी तरह से गलत है। और वे अक्सर उदार धर्मगुरुओं व उनके अनुयायियों को काफिर या पश्चिम के मददगार बताते हैं। वे पूरी तरह से किसी वैकल्पिक धार्मिक व्याख्या को खारिज करते हैं और उसे ‘असल’  इस्लाम का हिस्सा तक मानने को तैयार नहीं हैं। फिर कैसे ऐसे लोगों को कट्टरता की तरफ तब जाने से रोका जाए?  इसका उत्तर आसान नहीं है। सबसे पहले तो हमें यह समझने की जरूरत है कि क्यों और कैसे कुछ लोग शुरू में हिंसक कट्टरपंथी बन गए। जैसे,  माइकल जेहाफ बिबेयू को ही लीजिए,  उसने इस साल के शुरू में एक कनाडाई जवान को गोली मारी थी या फिर शार्ली एबदो हमले के जिम्मेदार कोशी भाइयों को लीजिए। हिंसा के रास्ते में आपराधिक, हिंसक या अस्थिर अतीत शामिल होता है। ऐसे लोगों के लिए धर्म या विचारधारा के नाम पर हिंसक कट्टरता उनकी पहले से जारी हिंसक जीवनशैली की एक निरंतरता है या उससे आगे का रास्ता है।

दूसरी बात,  हमें यह पहचानना होगा कि झुकाव की इस प्रक्रिया में कोई शख्स कहां तक पहुंचा है। यह मुश्किल काम है, लेकिन नामुमकिन नहीं। हो सकता है कि वह शख्स किसी हिंसक गतिविधि को अमल में लाने की योजना पर काम कर रहा हो। ऐसे में,  पुलिस-प्रशासन की दखल से उसे रोका जा सकता है। लेकिन शुरुआती स्तर पर,  खासकर जब कोई शख्स कट्टरता की तरफ आकर्षित होने के संकेत दे रहा हो,  तब इस पूरी प्रक्रिया में दखल डाला जा सकता है या इसे खत्म किया जा सकता है। जब कोई शख्स कट्टर बन जाने का संकेत दे रहा है,  तो हमें यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि उसकी जिंदगी में क्या कुछ चल रहा है। क्या उसमें व्यवहार संबंधी कोई बड़ा बदलाव आया है? क्या उसकी जिंदगी में कोई पारिवारिक कलह है, जो नहीं सुलझा?  क्या उसकी जिंदगी में कोई शख्स है,  जो उसे कट्टरवाद या उग्र विचारों की तरफ ले जा रहा है?  क्या उसकी निजी जिंदगी में कुछ ऐसा हुआ है कि वह अपनी नाराजगी या कुंठा निकालने पर आमादा हो?  ऐसी समस्याएं उन युवाओं में आम होती हैं,  जो किसी पहचान से जुड़ जाते हैं,  भले ही धर्म कोई भी हो।

उग्रवाद की ओर बढ़े ऐसे लोगों के लिए पारिवारिक परामर्श के रास्ते को जर्मनी और कुछ जगहों पर अपनाया गया है। जर्मन हयात प्रोग्राम पारिवारिक सदस्यों को ऐसे सवालों और मुद्दों को सुलझाने में मदद करता है। यह कार्यक्रम जर्मनी में इतना सफल हुआ कि ब्रिटेन,  फ्रांस और कनाडा जैसे देशों में भी इसे अपनाया गया। यह कार्यक्रम परिवार से संपर्क साधता है,  लेकिन किसी न किसी स्तर पर यह व्यक्ति से भी जुड़ता है। इससे पुलिस,  सामुदायिक नेता,  धार्मिक विद्वान और अन्य सदस्य भी जुड़ सकते हैं। पासपोर्ट जब्त कर लेना,  गिरफ्तार करना आतंकवाद निरोध के तहत ऐसे काम कई देशों में किए जाते हैं। ये किसी हिंसक वारदात को रोक तो सकते हैं,  लेकिन अपने आप में ये पर्याप्त नहीं हैं। हमें वैसे उपाय अपनाने होंगे,  जो उग्रवाद को महज सुरक्षा की समस्या न माने,  बल्कि उसे सामाजिक समस्या की तरह भी देखें। इसी से आतंकवाद को रोका जा सकता है।
साभार- द गाजिर्यन
 (ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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